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करता रहे, तब मन बिदक जाता है कि टेढ़े के सामने टेढ़े ही रहने की ज़रूरत है। वहाँ पर 'ज्ञानीपुरुष' सही समझ का प्रकाश देते हैं कि 'कितने ही जन्मों की कमाई हो, तब जाकर सरलता उत्पन्न होती है।' वहाँ पर टेढ़े का व्यवहार देखकर अपनी जन्मों-जन्म की आध्यात्म की पूँजी क्या खो देनी है? और दिवालिया निकालना है? टेढे के साथ सरल रहना, वह तो ग़ज़ब की चीज़ है!
संसार में दुःख के मूल कारण का ज्ञानी ने क्या शोधन किया? जिन्हें सामनेवाला गुनहगार दिखता है, वे खुली आँखों के बावजूद अंधे हैं। भगवान की भाषा में कोई गुनहगार है ही नहीं। फूल चढ़ाए वह भी और गालियाँ दे वह भी! यदि कोई गुनहगार दिखता है, तो वह खुद की ही मिथ्यात्व रूपी दृष्टि का रोग है। खुद को जो कुछ भी कमी भासित होती है, वह अंत में तो पुद्गल बाज़ार की ही है न? 'अपनी' तो नहीं है न?
विश्वासघात, वह भयंकर गुनाह है। मिलावट करना, अणहक्क का भोगना, वह सब विश्वासघात कहलाता है। छुपकर गुनाह करने से अंतराय पडते हैं। खाने-पीने और दवाईयों में जो मिलावट होती है, उससे भयंकर गुनाह लागू होता है। बाकी सब जगह चलाया जा सकता है, लेकिन यहाँ तो किसी भी परिस्थिति में चलाया ही नहीं जा सकता।
जगत् अपना ही प्रतिबिंब है। सामनेवाले को हमसे दुःख हो, तो वह अपनी ही भूल का परिणाम है। वहाँ हम भूल को खत्म करेंगे तो हल आएगा। उसके लिए कुछ भी नहीं करना है, लेकिन सही ज्ञान जानना है कि जो अवश्य ही क्रिया में फलित हो!
'हमसे होनेवाली कोई भी क्रिया सही है या गलत है,' ऐसी उलझन किसने अनुभव नहीं की होगी? 'जिससे खुद को सुख हो, वह सही और दु:ख हो, वह गलत' ऐसा सादा थर्मामीटर देकर ज्ञानी ने अनेकों की उलझनों (गुत्थियों) को कितनी सरलता से सुलझा दिया है!
खुद सर्वशक्ति संपन्न होने के बावजूद, खुद से सामनेवाले को किंचित्मात्र भी दुःख नहीं होने दे, वह खरा बलवान ! वहाँ प्रताप गुण उत्पन्न
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