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अपभ्रंश भाषा का विकास
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स्थिर एवं निश्चित होते रहे । अतः जिनका व्याकरण के ज्ञान से निरन्तर सम्बन्ध न था उनके लिए क्रमशः अधिक कठिनता उपस्थित होती गई। व्याकरण-शिक्षित जनता की भाषा ज्यों-ज्यों एक ओर शुद्ध और परिमार्जित होती गई त्यों-त्यों दूसरी मोर.व्याकरण की शिक्षा से रहित जनता के अधिकांश भाग के प्रयोग के लिए अनावश्यक होती गई । इस प्रकार शुद्ध और परिमार्जित भाषा ने अपने आपको क्रमशः सामान्य जनता की बोलचाल की भाषाओं से अलग कर लिया। यह व्याकरण सम्मत और शुद्ध भाषा एकमात्र एवं सुशिक्षित लोगों की संपत्ति हो गई। ज्यों-ज्यों सर्वसाधारण की बोलचाल की भाषाएँ उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रयोग में आती गईं, इन में भेद भी क्रमशः अधिकाधिक बढ़ता गया।
इसी से मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा काल की मध्यकालीन अवस्था में संस्कृत भाषा के अतिरिक्त अनेक जैन प्राकृत और साहित्यिक प्राकृतों का उल्लेख तत्कालीन वैयाकरणों और आलंकारिकों के ग्रंथों में मिलता है। इनमें से मुख्य प्राकृत निम्नलिखित हैं
शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी, अर्धमागधी और पैशाची।। शौरसेनी-संस्कृत के नाटकों में स्त्री-पात्रों तथा मध्य कोटि के पुरुष पात्रों द्वारा शौरसेनी का प्रयोग किया जाता था। यही भाषा साहित्यिक रूप में चिरकाल तक भारत के विस्तृत क्षेत्र में प्रयुक्त होती रही । दो स्वरों के बीच में संस्कृत के त् और थ् का क्रमशः द् और ध् हो जाना इस भाषा की विशेषता है। दो स्वरों के बीच में स्थित द् और ध् वैसे ही रहते हैं । उदाहरणार्थ
गच्छतिगच्छदि, यथा=जघा, जलनः जलदो, क्रोधः=कोधो इत्यादि ।
महाराष्ट्री—यह काव्य की पद्यात्मक भाषा है। काव्य के पद्यों में इसी का प्रयोग होता था। हाल रचित गाथा सप्तशती और प्रवरसेन रचित सेतुबन्ध या रावण वध जैसे उत्कृष्ट कोटि के काव्य इसी भाषा में रचे गये । दो स्वरों के बीच के अल्पप्राण स्पर्श वर्ण का लोप और महाप्राण का ह हो जाना महाराष्ट्री की विशेषता है। उदाहरणार्थ गच्छति गच्छइ, यथा=जहा, जलदः=जलो, क्रोधः=कोहो । - डा० मनमोहन घोष का विचार है कि महाराष्ट्री, महाराष्ट्र की भाषा नहीं अपितु शौरसेनी के विकास का उत्तरकालीन रूप है। डा० सुनीतिकुमार भी इस आधार पर इसे शौरसेनी प्राकृत और शौरसेनी अपभ्रंश के मध्य की अवस्था मानते हैं।'
मागधी—यह मगध देश की भाषा थी। नाटकों के निम्न वर्ग के पात्र इसी भाषा का प्रयोग करते थे । इसके मुख्य ये लक्षण हैं
क-संस्कृत ऊष्म वर्गों के स्थान पर २ का प्रयोग । यथा सप्त-शत्त ख-र् के स्थान पर ल का प्रयोग । यथा-राजा=लामा ग—अन्य प्राकृतों में य के स्थान पर ज् का प्रयोग होता है इसमें य ही रहता __ है । प्राकृत के शब्द जिनमें ज् और ज्ज् का प्रयोग होता है इसमें य और १. इंडो आर्यन एंड हिन्दी, पृ० ८६ ।