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अपभ्रंश-साहित्य
३. मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषा की उत्तरकालीन अवस्था ( Third
or Late M. I. A.) यह काल ५०० ई० से लेकर १००० ई० तक
अपभ्रंश का काल था। मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा की प्रारंभिक अवस्था में द्विवचन और आत्मनेपद का ह्रास हो गया था। विभक्तियों में षष्ठी और चतुर्थी का एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग होने लग गया था। सर्वनाम के परप्रत्यय संज्ञा के परप्रत्ययों के लिए प्रयुक्त होने लग गये थे। क्रिया के लकारों में लुट्, लङ्, लिट्, और लुङ् के रूपों का लोप हो गया था। विधिलिङ् और आशीलिङ् का प्रायः एकीकरण हो गया था। गुणों के भेद से उत्पन्न क्रियारूपों की जटिलता और व्यंजनान्त संज्ञारूपों की बहुलता प्रायः कम हो गई थी। स्वरों में ऐ, औ, ऋ और लु विलुप्त हो गये थे । ह्रस्व ए और
ओ का आविर्भाव हो गया था। विसर्ग का अभाव, व्यंजनों का समीकरण, संयुक्त व्यंजनों का बहिष्कार और अनेक स्वरों का साथ-साथ प्रयोग होने लग गया था।' मध्यकालीन भारतीय पार्यभाषा काल की भाषाएँ भी प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल की भाषाओं के समान संयोगात्मक ही बनी रहीं।
__ मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा काल की प्रारंभिक अवस्था में पाली और अशोक के शिलालेखों की प्राकृत मिलती है । पाली में तृतीया बहुवचन में अकारान्त शब्दों का एभिः रूप, प्रथमा बहुवचन में प्रासः का विकल्प से प्रयोग, लङ् और लुङ् लकारों में अडागम का प्रायः अभाव आदि उदाहरणों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि पाली के विकास में संस्कृत की अपेक्षा वैदिक भाषा और प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल की बोलियों का अधिक प्रभाव है ।।
मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा काल की मध्यकालीन अवस्था में जैन प्राकृतों और शौरसेनी आदि साहित्यिक प्राकृतों का प्रचार हुआ । इस काल की भाषाओं में परिवर्तन की मात्रा और भी अधिक हो गई। संयुक्त व्यंजनों के स्थान पर व्यंजन समीकरण की प्रवृत्ति इस काल से पूर्व ही प्रारंभ हो गई थी। इस काल में संयुक्त व्यंजनों में केवल अनुनासिक और उस वर्ग का स्पर्श वर्ण, म्ह, ण्ह और ल्ह दिखाई देते हैं। दो स्वरों के बीच के स्पर्श वर्ण का प्रायः लोप इस काल की विशेषता है। (काकः= काग्रो, कति=कहइ, पूपः पूत्रो, नदी =नई इत्यादि)। विभक्तियों में चतुर्थी विभक्ति का पूर्ण रूप से लोप हो गया। पंचमी का प्रयोग बहुत कम मिलता है। इसी प्रकार क्रियारूपों की जटिलता भी बहुत कम हो गई । क्रिया और संज्ञाओं के बाद परसर्गों का प्रयोग भी इस काल से आरंभ होने लग गया।
पाणिनि ने संस्कृत को व्याकरण से परिष्कृत कर उसके रूप को स्थिर कर दिया। व्याकरण के अध्ययन के विकास के साथ संस्कृत भाषा के प्रयोग और नियम
१. डा० बाबूराम सक्सेना-सामान्य भाषा विज्ञान, हिन्दी साहित्य सम्मेलन
प्रयाग, २००६ वि० सं०, पृ० २६१। २. वही पृ० २६३ ।