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अज्ञानतिमिरनास्कर. अर्थानास कहते है. हां जो कितनेक लोग अंग्रेजी फारसी कीताब पढे है वे तो प्रमाणिक मानते है क्योंकी ननके मनमानी बात जो दयानंद कहते है तब वे बमे आनंदित हो जाते है. जबसें वे मझेशामें और मिशनस्कूलोंमें विद्या पढने लगते है तबहीसे शनैः शनैः हिंऽधर्मसे घृणा करने लग जाते है. क्योंकि जब हिंज्योंके देवतायोंका हाल सुनते है और उनकी मूर्तियोंकों देखते है तब मनमें बहुत लज्जायमान होते है, कितनेक तो इसार, मुसलमानादिकोंके मतको मानने लग जाते हैं. और कितनेक बामजव अर्थात् किसीकोनी सच्चा नही मानते है. और कितनेक अपनी चतुराईके घमंमसे वेदादि शास्त्रोंको गटने लग जाते है, यथा संहिता ईश्वरोक्त है इसवास्ते प्रमाणिक है. ब्राह्मण और उपनिषद् जीवोक्त है इसवास्ते अप्रमाणिक है. को वेदोंके पुराणे नाष्यादिकोंकों जूठे जानकर स्वकपोलकल्पित नाष्यादि बनाते है. कितनेक कहते है वेदादि सर्व शास्त्रों में जो कहना हमारे मनको अच्चा लगेगा सो मान लेवेंगे, शेष बोम देवेंगे. तब तो वेदादि शास्त्र क्या हुये. क्रूजमोंकी तरकारी हुई, जो अच्छी लगी सो खरीद करती और जो मनमें माना तो अर्थ बना लिया. यह शास्त्र वेदादि परमेश्वरके बनाए क्यों कर माने जा सकते है? जिनके कितनेक हिस्से जूठे और कितनेक हिस्से सच्चे और मनकल्पित अर्थ सच्चे. क्या मनकल्पित अर्थ बनाने वालोंके किसी वख्तनी न्याय बुद्धि नहीं आती जो अपनी कल्पनासें जूठे शास्त्रोंकों सच्चा करके दिखाते है? इसबातमें ननोने अपने वास्ते क्या कल्याण समजा है? ऐसेतो हरेक जूठे मतवाले अपने मतके जूठे शास्त्रोंकों मनकल्पित अर्थ बनाके सच्चे कर सक्ते है. हे परमेश्वर वीतराग सर्वज्ञ ! ऐसी मिथ्याबुद्धिवालोंका दमकोतो स्वप्नेमेंनी दर्शन न होवे, मन कल्पित अर्थोमें जो शतपथादि ब्राह्मण और निरुक्त प्रमुखके प्रमाण दीये है लो.
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