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अज्ञानतिमिरनास्कर. धर्म समजना यह बहुत बमा पाप है, इस वास्ते वेडोक धर्म नीक नहीं. जिसको मोक्षकी इज्ग होवे सो प्रकृति पुरुषके ज्ञानसें और त्याग वैराग्यसे लेवे परंतु जीववध करनेसे कदापि मुकि नहीं होवेगी. तब तो चारों औरसे वैदिक धर्मवाले ब्राह्मणोंकी निंदा होने लगी, और तिनकों लोगोंने बहुत धिक्कार दिया. ति. ससे वेदोंके पुस्तक ढांककें रख गेडनेकी जरूरत हो गइ. और कितनीक बेदोक्त विधियां त्याग दीनी, और स्मृति, पुराण वगैरे बनाके तिनमें लिख दिया कि कलिमें फलानी फलानी चीज करनी और जो जो बाते जैन बौध धर्मकी साथ मिल जावे ऐसी दाखल करी, और कितनीक नवी युक्तियां निकाली, वे ऐसी कि अगले ऋषि जो यज्ञ करते थे वे जनावराको मारके ननका मांस खाके फिर जिता कर देते थे, वे बके सामर्थ्यवाले थे. कितनेक कहने लगे कि मंत्रोका सामर्थ्य तिन ऋषियोके साथदी चला गया. परंतु यह सर्व कहना ब्राह्मणोंका जुग है शास्त्रोंमेंसे यह प्रमाण किसी जगेसें नही मिलता है. परंतु यद प्रमाणतो मिलता है कि ऋषि जनावरोंको मारके होम करते और तिनका मांस खाते थे, तिस वखतमें जो वेद थे वेदी वेद इस वखतमेंनी है. परंतु वेदोक्त कर्म जो कोई आज करे तो तिसकी बहुत फजीती होवे. मधुपर्क, अनुस्तरणी, शूलगव, अश्वमेधमें संवेशन प्रकार, अश्लील नाषण इत्यादि वेदोक्त कर्म आज कोई करें तो तिसकी संगत कोई लोकनी नही करे, और तिसके साथ व्यवहारत्नी नही रख्खे. और यह पूर्वोक्त कर्म देखिये तो बहुत बुरा दिख प-' मता है. गर्नाधान संस्कारमें ऋग्वेदका मंत्र पढते है सो यह है. .. तां पुषं शिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्यावपंति॥
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