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द्वितीयखंम.
२२३ धिकारी हो.
पूर्वपद-सर्व जीवांकी रक्षा करनेवाला और मांसका न खानेवाला हमको कोई नहि दिख पडता है क्योंकि,-" जले जीवाः स्थले जीवाः जीवा आकाशमालिनि । सर्वजीवाकुले लोके कयं निकुरहिंसकः ॥१॥" अर्थ--जलमें, स्थलमें, प्रा. काशमें सर्व लोक जीवां करके जरा है तो फिर आहार, निहार, पूजन, प्रतिलेखनादि करणेंसें साधु अहिंसक क्योंकर हो शकता है ? अपितु नहि हो शकता है. ऐसा कोन जीव है जिसके हलने चलनेसें जीव हिंसा न होवे ? साधु लोकन्नी सचित्तादि पृथ्वी नपर चलते है, नदीमें नतरते है, वनस्पतिका संघट्टा करते है, निगोद अर्थात् शेवालके जीवांकी विराधना करते है, तथा विना नपयोग अनेक क्रीमा प्रमुख जीव मर जाते है, पूजना, प्रतिलेखना करते हुए वायुकायके जीव मरते है. इस वास्ते साधुनी अहिंसक नहि है तो फिर इसरा, साधु विना, कोन अहिंसक है ?
नत्तरपद-हे नोले जीव ! तुं हिंसा अहिंसाका स्वरूप नहि जानता है, इस वास्ते तेरे मनमें पूर्वोक्त अहिंसाकी बाबत कुल कलि नती है. प्रथम तेरेको हिंसाका स्वरूप कहता हूं. “प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" इति तत्वार्थसूत्रम् .
अर्थ-प्रमादवाले जिसके मन वचन कायारूप योग है. जीवांको प्राण रहित करणा तिसका नाम हिंसा है. प्रमाद क्या वस्तु है ? मिथ्यात्त्व १ अविरति १ कषाय ३ योग । तथा मद्य १ विषय २ कषाय ३ इन सर्वको प्रमाद कहते है. ये प्रमाद जिसके मन, वचन, कायामें होवे तिन मन, वचन, कायाके योगांसें जो जीव मरे तीसका नाम हिंसा है. इस वास्ते सत् साधु अर्हत नगवंतके आज्ञासें जो आहार, वि:
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