Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 346
________________ २७२ अज्ञानतिमिरनास्कर. तिष्ठा सिइ है. इस वास्ते आचरणा प्रागमसें विरुइ नहि और प्रमाणिक है, यह स्थित पद है. इस वास्ते धर्मरत्न शास्त्रका कर्ता कहता है " अन्नह नगिय पिसुए किंची काला कारणा विख्ख । आश्न मनहञ्चिय दीसइ संविग्ग गीएहिं ॥ १ ॥ व्याख्या-अन्यथा प्रकारांतर करके पारगत तीर्थकरके आगममें कथन करानी है तोनी को कोई वस्तु कालादि कारण विचारके दुःखमादि स्वरूप आलोचन पूर्वक आचरणा व्यवहार गीतार्थ संविझोने अन्यथा करा देखते है, सोश दिखाते है. गाथा “कप्पाणं पावकरणं अग्रोयरचानझोलिया निखा । नवग्गहिय कडाहय तुंबय मुहदाण दोराइ ॥२॥” व्याख्या कल्प साधुकी चांदरा पठेवमीयां प्रावरणा आत्मप्रमाण लंबीया और अढाइ हाथ प्रमाण विस्तार चौमीयां कथन करीयां है सो आगममें प्रसिद्ध है. प्रावरणका अर्थ जिस्से शरीर सर्व ओरसे वेष्टन करीये ते प्रावरण है ते प्रसिह है. वे प्रावरण कारण विना जब निकादिकके वास्ते जावे तब प्रावरणा समेटके, स्कंधे उपर रखे, यह आगम कथन है. और आचरणासें तो इस कालमें सर्व शरीर ढांकके जाते है. तथा अग्रावतार नामा वस्त्र साधु जनोंमे प्रसिह है सो साधु राखे ऐसा आगममें कथन है. सं. प्रति काल में पूर्व गीतार्य संविझोकी आचरणासें तिस अग्रावतार वस्त्रका त्याग करा है. तथा कटीपट्टक, चोलपट्टकका अन्यथाकरणा, आगममें तो चोलपट्टक करणा कारण पमे तो कहा है और कायोत्सर्गादिकमें चोलपट्टेको कुहणीयोंसे दाबके रखना कहा है. और संप्रति कालमें आचरणासें चोलपट्टक सदा कहिमें कडी दोरसें बांधते है. तथा झोलिका दो गांठे करके नियं For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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