Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 386
________________ ३२२ अज्ञानतिमिरनास्कर. उस्वर, नंच, नीच, रंक, राजा, धनी, निर्धन, दुःखी, सुखी जो जो अवस्था संसारमें जीवांकी पीठे दुई है, और अब दो रहि है, और आगेको होवेगी, सो सर्व कौके निमित्तसें है. वास्तवमें शुइ च्यार्थिक नगके मतमें तो आत्मामें लोक १ तीनवेद २ थापना ३ नुच्छेद मुख्य करके नहि ४ पाप नहि ५ पुन्य नहि ६ क्रिया नहि ७ कुच्छ करणीय नहि त राग नदि ए वेष नहि १० बंध नहि. ११ मोक्ष नहि १२ स्वामी नहि १३ दास नहि १४ पृथ्वीरूपी १५ अपूरूप १६ तेजस्काय १७ वायुकाय १७ वनस्पति १ए बेंसी ३० तेही १ चौरेंदी २२ पंचेंडी २३ कुलधर्मकी रीत नदि शिष्य नहि २५ गुरु नहि २६ हार नहि २७ जीत नदि श सेव्य नहि ए सेवक नहि ३० इत्यादि नपाधप्या नहि परंतु इस कथनको एकांतवादी वेदांतिओकी तरें माननेसं पुरुष अतिपरिणामी होके सत्स्वरूपसें ब्रष्ट होकर मिथ्यादृष्टि हो जाता है. इस वास्ते पुरुषको चाहिये, अंतरंग वृत्तितो शुभ च्यार्थिक नयके मतकों माने और व्यवहारमें जो साधन अढारह दूषण वर्जित परमेश्वरने कर्मोपाधि दूर करनेके वास्ते कहे है तिनमें प्रवर्ने. यह स्याछाद मतका सार है. तथा यह जो आत्मा है सो शरीर मात्र व्यापक है. और गीणतीमें प्रात्मा लिन निन्न अनंत है. परंतु स्वरूपमें सर्व चेतन स्वरूपादिक करके एक सरीखे है परंतु एकही आत्मा नहि, तथा सर्व व्यापीनी नहि. जो एक आत्माको सर्व व्यापी और एक मानते है वे प्रमाणके अननिश है. क्योंकि ऐसे आत्माके माननेसें बंध मोक्ष क्रियादिका अन्नाव सिह होता है तथा आत्माका यह लक्षण है. . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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