Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 392
________________ ३२८ अज्ञानतिमिरनास्कर. नोगता है, उसरेका कर्म उसरा नही नोगता है. धन कुटुंब अरु खजाना यह सबी पर वस्तु हे इसमें मेरा कुछ नही है-मेरा ज्ञानरुपी आत्मच्य सदा अखंडित है इत्यादि अंतरनावनासे विचार करता होवे, अरु कदाच हीरा, ज्वारात, सुवर्ण आदि नत्तम वस्तुका लान होवे, तब ऐसा विचारेके यह पौद्गलीक वस्तुका मेरसे सबंध दुवा है, इसमें मेरेकुं श्रानंदित न होना चाहिये. फिर वेदनीय कर्मका नद्य होनेसे कदाच रोग, सोग, अरु. कष्ट आ पडे तबन्नी समन्नावकुं धारन करे अरु अपने अंतरात्माकुं परनावसे अर्थात् विषयजन्य सुखोंसे जुदा समजे, चितमें परमात्माका ध्यान करे, अरु धर्म कृत्यमें विशेष करके उद्यम रखे, सो कादशनूमिकावर्ती अंतर दृष्टिवाला अंतरात्मा कहा जाता है. अब परमात्मात्माकानी किंचित् स्वरूप लिखते है.. (यउक्तं ) श्रामद्-हेमचंज्ञचार्यपादैः महादेवस्तोत्रे । [अनुष्टुप् वृत्तम् ] परमात्मा सिद्धिसंप्राप्तो बाह्यात्मा च भवांतरे। अंतरात्मा भवेदेह इत्येवं त्रिविधः शिवः ॥ १॥ जे आत्माका स्वन्नावकु प्रतिबंध करनेवाले अर्थात् अंतराय करनेवाले कर्मोका नाश करके निरुपम नत्तम केवलज्ञान आदि सिह सुखकुं प्राप्त हुआ है, अरु जे करतलमें रहे. दुवा मुक्ताफलकी तरेह समस्त विश्वकुं अपने ज्ञानके प्रत्नावसे जानता है. अरु जे सदा ज्ञान दर्शन चारित्ररुप सच्चिदानंद पूर्ण ब्रह्मकुं प्राप्त दुवा है, सो त्रयोदश भूमिकावर्ती देहधारी आत्मा अरु शु स्वरुपवान् निर्देही सिक्षात्मा यह दोनुकुं परमात्मा कहा जाता है. जिस जीवकुं याने आत्माकुं आत्मज्ञान हो गया होवे वो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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