Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 391
________________ ३२७ द्वितीयखं. ब्रह्म हो जता है, और लोगोकुं कहने लगता है-नश्यां हम जो स्त्री नोगते है, इंडियोंके रसमें मगन है, धन रखते है, डेरा बांधते है इत्यादि वो सर्व मायाका प्रपंच है. हम तो सदा अलिप्त है. ऐसे ऐसे ब्रह्मज्ञानियोंका मुह काला करके और गइपर चढा के देशनिकाल करना चाहिये, क्योंकि ऐसे ऐसे व्रष्टाचारी ब्रह्मज्ञानीपोने कितनेक मूर्ख लोगोकों ऐसा ब्रष्ट करा है कि ननका चित्त कदापि सन्मार्गमें नहि लग शकता है, और कितनीक कुलकी स्त्रियोंकों ऐसी बिगाडी है कि वे कुलमर्यादा लोकपर श्न नंगी जंगी फकीरोंके साथ पुराचार करती है. और यह जो विषयके निखारी और धनके लोनी संत महंत नंगी जंगी ब्रह्मज्ञानी बन रहे है वे सर्व उतिके अधिकारी है, क्योंकि इनके मनमें स्त्री, धन, काम, नोग, सुंदर शय्या, आसन, स्नान, पानादि नपर अत्यंत राग है. उखके आये दीन दीन दोके विलाप करते है. जैसे कंगाल बनीआ धनवानोको देखते झूरता है तैसे यह पंडित संत महंत नंगी जंगी लोगोंकी सुंदर स्त्रीयां धनादि देखके झूरते है, मनमें चाहते है ये हमकुं मिल तो गैक है. इस बातमें इनका मनही साक्षी है. तथा जो जीव बाह्य वस्तुकोंही तत्व समजता है तिसहीके नोगविलासमें आनंद मानता है सो प्रथम गुणस्थानवाला जीव बाह्यदृष्टि होनसे बदिरात्मा कदा जाता है. १. अब अंतरात्माका स्वरूप कहते है. जे तत्वज्ञान करके युक्त होवे, कर्मबंधन निबंधनके स्वरूपकुं अच्छी तरहसे समजाता हावे, अरु सदा चित्तमें ऐसा वि'चार करता होवे के- यह अपार संसारमें जीव जे जे अशुन्न कर्म नपार्जन करता है सो सो अंतमें उदय पानेसे प्रापसे प्राप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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