Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 389
________________ ___हितीयखम. ३२५ - पांचमा पर. जीव और पुन्य पापही नहि है. यहनी कहना मिथ्या है क्योंकि जब जीवही नहि तब यह शान किसकों दुआ कि कुच्छ है ही नहि है. इस वास्ते जीव और कर्माका संयोगसंबंध प्रवाहसे अनादि है. तथा यह जो आत्मा है सो कर्माके संबंधसे त्रस थावर रूप हो रहा है. थावर पांच है. पृथ्वी १ जल २ अग्नि ३ पवन ४ वनस्पति ५. और वस चार तरेंके है, दो इंख्यि । तेंश्यि २ चौरोंदिय ३ पंचेंश्यि तथा नारक १ तिर्यंच ३ मनुष्य ३ देवता । तिनमें नरकवासीओके १५ नेद है. तिर्यंच गतिके ४७ नेद है. मनुप्य गतिके ३०३ नेद है. देव गतिके १ए नेद है. ये सर्व ५६३ नेद जीवांके है. यह आत्मा कथंचित् रुपी और कथंचित् अरूपी है. जब तक संसारी आत्मा कर्म करी संयुक्त है तब तक कथंचित् रूपी है. और कर्म रहित शुभ आत्माकी विवका करीए तब कथंचित् अरुपी है. जेकर आत्माकोंएकांतरूप मानीए तब तो आत्मा जम सिह होवेगा और कटनेसे कट जावेगा और जेकर आत्मा एकांत अरूपी मानीए तो आत्मा क्रिया रहित सिह होवेगा तब तो बंध मोक्ष दोनोका अन्नाव होवेगा. जब बंध मोदका अन्नाव दुआ तब शास्त्र और शास्त्रकार जूग ठहरेंगे, और दीक्षा दानादि सर्व निष्फल होवेंगे. इस वास्ते आत्मा कथंचित् रुपी कथंचित् अरूपी है. तथा तत्वालोकालंकार सूत्रमें आत्माका स्वरूप लिखा है. “चैतन्य स्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षादलोक्ता स्वदेह परिमाणः प्रतिक्षेत्रं निनः पौगलिकं दृष्ट्वाश्चर्यमिति.” इस सूत्रका अर्थः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404