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अज्ञानतिमिरनास्कर. ओको बोधरूप बीजको देनेवाला बहोत ग्रंथ बनायाया. मसका पटरूपकुं लोको वनबासी कहने लगे. ते पीछे उनीशमे पटमें सर्वदेव नामका एक बोहोत्त गुणवाले सूरि हुवा, सर्व मुनिवृंदको सुखदेनेवाला दुवा. ओ सूरिको वडकावृतनींचे पटका अनिषेक दुवा, ए कारण लोकमें नुसकानाम 'वटगच्छ' एसासत्व गुणीनाम नया ते पीछे चोंवालीशमे सुंदर पटमें पुष्करमें चंकी माफक जगञ्चसूरि नत्पन्न हुवा. कोइ समयमें ओ सूरि मेवामकी नूमिमें विहार करते करते आघाट नगरकी बाह्य नूमिका स्थानपर आया. तब ए नगरका राजाए तपस्वी मुनिको देखकर अपना मंत्रीसें पुग्या के, तपसे पुर्बल एसा ओ कोन है ? मंत्रीका मुखसे ओ मुनिका वृत्तांत जागकर राजा उसका नक्त दुवा. और हर्षलें तिस समयमें 'तपागच्छ' एसा यथार्थ नाम दीया. ते पीछे नतका पदमें अनुक्रमे देवें सूरि और धर्मघोष तथा श्री हीरविजय प्रमुख राजा के सेव्य एसा सूरी हुवा. त्यारपी वादिरुप हरणोकुं नशामने में सिंह जैसा आकाशमें चंइसमान श्रीमान रूपविजय नामे शिष्य दुवा, सो सर्वविछानोमें श्रेष्ठ और कमा प्रमुख गुणोको धारण करनेवाला था. नसका शिष्य कस्तूरविजय दुवा, सो कस्तूरीकी माफक इष्ट गंधको देनेवाला, जैनशास्त्रोका पारंगत और कामदेवका नाशक दुवाथा नसकी पाटे 'मणिविजय' नामे तपस्वी मुनि दुवा, उसका चारित्र मु. क्तिसें कमलकी माफक निर्मल था. नसकी पाटे बुझिविजय हुवा था, जिसका निर्मल हृदय हरदम ज्ञान ध्यानमें रहेताथा. नसका शिष्य 'आनंदविजय' दुवा, जिसका उसरा नाम आत्माराम है. सो में सत्य तत्वका अनिलाषी होकर जैनमतमें दृढ दुवा दु. में ओ अज्ञानतिमिरनास्कर' अथ स्तंननतीर्थ खनात
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