Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

Previous | Next

Page 388
________________ ३२४ अज्ञान तिमिरजास्कर. दिये ३ जीव कर्त्ताके विना कर्म नृत्पन्न नहि हो शकते ४ जे कर कर्म ईश्वरने करे तब तो तिनका फलनी ईश्वरको जोगना चाहिये. जब कर्म फल भोगेगा तब ईश्वर नहि ५ जेकर ईश्वर कर्म करके अन्य जीवांको लगावेगा तव निर्दय, अन्यायी, पक्षपाती, अज्ञानी, सिद्ध होवेगा. क्योंकि जब बरे कर्म जीवके विना करे जीवकों लगाये तबतो जो नरक गतिके दुःख तिर्यग्गतिके दुःख, दुर्भग, दुःस्वर, श्रयश, अकीर्ति, अनादेय, दुःखी, रोगी, जोगी, धनहीन, जूख, प्यात, शीतोष्णादि नाना प्रकार के दुःख जीवने जोगने जोगे है वे सर्व ईश्वरकी निर्दयतासें हुये १ विना अपराधके दुःख देनेंसें अन्यायी २ ए. ककुं सुखी करनेसे पक्षपाती ३ पीछे पुन्य पाप दूर करणेका नपदेश देनेंसे अज्ञानी ४ इत्यादि अनेक दूषण होनेसे दूसरा पकमी प्रसिद्ध है. तीसरा पक्ष जीव और कर्म एकदी कालमें उत्पन्न हुए यह पकी मिथ्या है; क्योंकि जो वस्तु साथ नृत्पन्न होती है तिनमें कर्नाकर्म नदि होते है. तिस कर्मका फल जीवकु न होना चाहिये. जीव और कर्मोंका उपादान कारण नदि जेकर एक ईश्वर जीव और कमका उपादान कारण मानीए तो प्रसिद्ध है, क्योंकि एक ईश्वर जमचेतनका उपादान कारण नदि हो शक्ता है. ईश्वरकुं जगत रचनेसें कुच्छ हानि नहि. जब जीव और जम नहि थे तब ईश्वर किसका था. जव कर्म स्वयमेव नत्पन्न नहि हो शक्ते है. इस वास्ते तिसरा पक मिथ्या है. चौथा पक्ष. जीवही सच्चिदानंदरूप एकला है. पुन्य पाप नदि यही पक्ष मिथ्या है. क्योंकि विना पुन्य पाप जगतकी विचित्रता कदापि सिद्ध न होवेगी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404