Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 387
________________ द्वितीयar. यः कर्त्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च । संर्त्ता परिनिर्वर्त्ता सआत्मा नान्यलक्षणः ॥ १ ॥ अर्थः-- जो शुभाशुभ कर्म नेवांका कर्ता है, और जो करे कर्म फल जोगनेवाला है. और जो भ्रमण करनेवाला, और निर्वाण होता है सोइ श्रात्मा है. इनसेंसें एक वातजी न मानी तो सर्व शास्त्र जुवें ठहरेंगे, और शास्त्रांका कथन करनेवाला प्रज्ञानी सिद्ध होवेंगे. तथा पूर्वोक्त श्रात्माके साथ जेकर पुन्य पापका प्रवाह अनादि संबंध न मानीएतो बने दूषण मतधारीयोके मत में श्राते है. वे ये है. जेकर आत्माको पहिलां माने और पुन्य पापकी उत्पत्ति आत्मामें पीछेमाने तबतो पुन्य पापसें रहित निर्मल श्रात्मा सिद्ध हुए १ निर्मल ग्रात्मा संसार में उत्पन्न नहि हो शकता है. २ विना करे पुन्यपापका फल जोगना असंभव है ३ जेकर विना करे पुन्य पापका फल जोगनेमें घावे तबतो सिद्धमुक्तरूपत्नी पुन्य पापके फल भोगेंगे ४ करेका नाश, विना करेका आगमन यह दूषण प्रावेगा ए निर्मल आत्माके शरीर उत्पन्न नदि होवेगा ६ जेकर विना पुन्य पापके करे ईश्वर जीवकुं अच्छी बुरी श रादिककी सामग्री देवेगा तब ईश्वर अन्यायी, अज्ञानी, पूर्वापर विचार रहित, निर्दयी, पक्षपाती इत्यादि दूषण सहित सिद्ध होवेगा तब ईश्वर काका ७ इत्यादि अनेक दूषण है. इस वास्ते प्रथम पक्ष प्रसिद्ध हैं. १ ३२३ दुसरा पक्ष कर्म पहिलें उत्पन्न हुए और जीव पीछे बना यही पक्ष मिथ्या है. क्योंकि जीवका उपादान कारण कोइ नदि १ श्ररूपी वस्तुके बनाने में कर्ताका व्यापार नदि २ जीवने कर्म करे नदि इस वास्ते जीवकों फल न होना चा Jain Education International * For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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