________________
३२०
अज्ञानतिमिरनास्कर. उत्तर-गुरुकी आज्ञा संयुक्त करे तो गुरुके गौरवका हेतु होवे. शिष्य गुणमें अधिक होवे तो गुरुके गौरवका हेतु है. श्री वजस्वामिके दुए सिंहगिरि गुरुवत्.
अत्र कया. शिष्यके गुणाधिक दुआ गुरुका गौरव है, किंतु तिस शिष्य गुणाविकनेनी गुरुको गुणहीन जानकर अपमान करना योग्य नहि. ऐसें गुरुकी नावसे विनय, नक्ति, वैयावृनादि करे तबही साधु शुःइ, अकलंक चारित्रका जागी होके. इस वास्ते पुष्कर क्रियाकारकन्नी शिष्य तिस गुरुकी अवज्ञा न करे परंतु तिसकी आज्ञा करनेवाला होवे. नक्तंच
___ “हम दसम ज्वालसेहिं मास.इ. मासखमणेहिं । अकरंतो गुरुवयणं अशंतसंसारिओ नणिो . अर्थ-उपवास, ठ, अम्म, दसम, हादशम, अर्धमास, मासक्षपण तप करनेवाला शि. प्य गुरुका वचन न माने तो अनंतसंसारी कहा हैं.
अथ साधुके लिंग सामाप्ति करता हुआ ग्रंथकार तिसका फल कहता है, पूर्वोक्त सात लक्षण सकल मागानुसारिणी क्रिया १ श्रा प्रधान धर्ममें २ समजावने योग्य सरल होनेसे ३ क्रियामें अप्रमाद ४. शक्ति अनुसारे अनुष्टान करे ५ गुरुसे बहुत राग ६ गुरु आझा आराधन प्रधान ७ इन सात लक्षणोका धरनेवा. ला नाव साधु होता है. तिस नाव साधुकों सुदेवत्व, सुमनुष्यत्व, जातिरूपादिक लान होवे, और परंपरासे मुक्ति पद मि. से. ऐसे साधुकोंही गुरु मानना चाहिये. कथन करा श्रावक साधुके संबंध नेदसें दो प्रकारका धर्म रत्न.
इति श्री धर्मरत्न प्रकरणानुसारेण गुरुतत्वका
स्वरूप किंचित मात्र लिखा है.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org