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अज्ञानतिमिरनास्कर. होवे तिसको क्या होवे सो कहते है. मूल गुणधारी गुरुके त्यागर्नेसें नक्त गुण गुरु बहु मानादि कृतज्ञता सकल गह गुणाकी, वृद्धि अवस्था परिहार इत्यादि गुणांका उच्छेद होवे. लोकमें: साधुओका विश्वास नदि होवे. लोक ऐसे माने-ये एकले परस्पर निंदक स्वबंदचारी अन्यअन्य प्ररूपणा करनेवाले. सत्यवादी है ? वा मृषावादी है ? जब लोकमें ऐसा होवे तब तिनकों परनवमें जिनधर्मकी प्राप्ति न होवे. इत्यादि एकले स्वच्छन्दचारी साधुकों दूषण होते है, जेकर थोडेसे दूषण प्रमाद जन्य देखके गुरु त्यागने योग्य होवे तब तो इस कालमें कोनी गुरु मानने योग्य नहि सिः होवेगा. क्योंकि जैनमतके सिहांतमें पांच प्रकारके निगंथ कहे है. पुलाक १ बकुश २ कुशील ३ निग्रंथ ४ स्नातक ५ इन पांचोका नेद स्वरूप देखना होवे तो श्रीनगवती सूत्रसें तथा श्री अन्नयदेवसूरि कृत पंच निग्रंथी संग्रहणीसें जानना. इन पांचोमेंसें निग्रंथ, स्नातक ये दोनों तो निश्चयही अप्रमादी होते है. किंतु ते कदे होते है, श्रेणिके मस्तके सयोगी अयोगी गुणस्थानमें होते है. इस वास्ते तीर्थकी प्रवृत्तिके हेतु नहि है. और पुलाकन्नी लब्धिके होनेसें ही होता है. यह तीनो सांप्रत कालमें व्यवच्छेद हो गये है. इस वास्ते बकुश कुशीलसेही श्कवीस हजार वर्ष तक निरंतर श्री वर्धमान लगवंत का तीर्थ चलेगा. तीर्थ प्रवाहके हेतु बकुश कुशील है. और बकुश कुशील अवश्यमेव प्रमादजनित दूषण लव करके संयुक्त होते है.जे. कर पूर्वोक्त दूषणोवालोकों साधु नमानीये तब तो सर्वसाधु त्यागने परिदरणे योग्य हो जायेंगे. यही बात चित्तमें लाकर सूत्रकारकहताहै. - "बकुश कुशीला तीथ्यं दोस लवाते सुनियम संलविणो । जई तेहिं वद्यणिज्जो अवद्यनिद्यो तऊपण्यि ॥ १३५ ॥” व्याख्या, बकुश कुशील व्यावर्णित स्वरूप दोनो निग्रंथ सर्व तीर्थंकरोके
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