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अज्ञानतिमिरनास्कर. गुणां करके संप्रयुक्त गुरु युक्त होता है. कदाचित् गुरु मंद बुदिबाला और बोलनेमें अचतुर, थोमेसे प्रमादवाला होवे, इत्यादि लेश मात्र दूषण देखके यह गुरु त्यागने योग्य है ऐसा मनमें न मानना क्योंकि मूल गुण पांच जिसमें होवे सो अन्य किसी गुण करके रहितनी गुरु गुणवंत है. चारुश्वत्, इत्यादि आगम व. चनानुसारे मूल गुण शुः जो गुरु होवे सो नोमने योग्य नहि है. कदाचित् गुरु प्रमादवान् हो जाते तब मधुर वचन करके और अंजलि प्रणाम पूर्वक ऐसें कहे-अनुपकृत, परहितरत तु. मने नला हमको मृहवाससे छोमाया अब ननर मार्गके प्रवर्तावनेसे अपणी आत्माको नीम नवकांतार संसारमें तारो. इत्यादि प्रोत्साहक वचनोंसे फेर नले मार्गमें प्रवनवे जैसे पंथग मुनिने सेलग राजऋषिकों फेर मार्गमे स्थिर करा, अत्र कथा ऐसे करता साधुको जो गुण होवे सो कहते है. ऐसे मुल गुण संयुक्त गुरुको न गेडता हुश्रा और गुरुको सत्य मार्गमें प्रवर्त्तावता हुआ साधुनें बहुमान सप्रीति नक्ति गुरुकी जरी है, तथा कृतज्ञता गुण अंगीकार करा तथा सकल गच्चको गुणांकी वृद्धिअधिक करी, क्योंकि सम्यक् आज्ञावर्ती पुरुष गह गुरुके ज्ञानादि गुणकी वृद्धि करताही है जेकर शिष्य शिखाये पठाये अविनीत होवे गुरुकी शिक्षा न माने तब गुरु तिनको त्याग देता है. कालिकाचार्यवत. तथा अनवस्था मर्यादाकी हानी तिसका त्याग करणा होता है. यह अतिप्राय है कि जो एक गुरु मुल गुण महाप्रसादको धारण करणेंकों स्तंन्न समान ऐसें गुरुको अल्प दोष पुष्ट जानके जो त्यागे तिसकों अन्यत्नी को गुरु नहि रचे. कालके अनुन्नावसे सूक्ष्म दूषण प्राये त्यागनेकों कोश्नी समर्थ नहि हो शक्ता है. इस हेतुसे उसको कोश्नी गुरु नहि रुचेगा. तबतो एकला विचरेगा तब
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