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अज्ञानतिमिरजास्कर.
नहि होते थे, इस वास्ते गुरुकी देनेकी इच्छा नदि हुइ, तब राजा अपने घेर गया. तहां राणीने तो जोजनका करना त्यागा; मोर पीaat a श्रावेगा तवही नोजन करूंगी. तब राजाने वारवार सरजस्कसें बत्र लेने वास्ते प्रार्थना करी तोजी गुरु देता नदि, तदा दुर्वार प्रेम ग्रहके व्यामोहसें राजा श्रपने सेवकोंसें कहता है-दात् जोरावरीसें खोसल्यो ? तब सेवक कहते है गुरु मांगनेसें देता नदि और जोरावरीसें लेना चाहते है तब गुरु शस्त्र लेके दमको मारणेकुं प्राता है. तब राजा कहता है. तुम दुरसे बालों से विंधके मारगेरो और बव लीन लेवो परंतु अपने पगोका स्पर्श गुरुके शरीर न करणा, क्योंकि गुरुकी प्रवज्ञा महा पातकका देतु है.
जैसा शबरराजा, गुरुका विनाश करता हुआ और पगांका स्पर्श करणा मना करता हुआ विवेक है तैसा गुरुकुल वासके त्यागनेवाले शुद्ध प्रादार लेनेवाले साधुका संयम पालना है; और आधा कर्म नदेशिकादि दूषण सहितजी आहार गुरु आज्ञा वर्तिक शुद्ध है. निर्दोष है, शुद्ध प्रहारकातो क्या कहना है जो गुरुका प्रदेश माने तिसकों गुरु श्राज्ञा वर्त्ती कहते है, ऐसा कथन श्रागमके जानकार करते है. इस वास्ते गुरु श्राज्ञा मोदी है. तिस वास्ते गुरु श्राज्ञा माननेवाला धन्य है, प्रशंसने योग्य है, जसे मनवाले है. इस वास्ते गुरु कर्कश वचनसें शि क्षा देवे तदा मनमें रोष न करे. गुरु कुलवास न बोडे.
प्रश्न- जैसा तैसा गुरुगण संपत्तिके वास्ते सेवना चाहिये के विशिष्ट गुणवाला सेवना चाहिये ?
उत्तर - गुणवानदी, गुण गण अलंकृतदी गुरु दो शक्ता है सो श्रुत धर्मका उपदेशक, चारित्र धर्मका पालनेवाला, संविज्ञ,
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