Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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द्वितीयखम.
३१५ गीतार्थ गुरु मानना योग्य है. गुरुके व्रत षट्क ५ काय षट्रक ६ अकल्प १३ गृहन्नाजन १४ पर्यंक १५ गृहस्थके घरे बैठना १६ स्नान १७ शोना १० ऐसा अगरह गुणका स्वरूप दश वैका लिकके उठे अध्ययनमें श्री शय्यंनव सूरिजीए विस्तारसे कथन करा है. इन अगरह गुण विना गुरु नहि हो शक्ता है-जैसें तंतु विना पट-वस्त्र नहि हो शक्ता है. प्रतिरूप, योग्यरूपवान् होवे १ तेजस्वी होवे २ युग प्रधानागमका जानकार होवे ३ मधुर वचन होवे । गंजीर होवे ५ बुद्धिमान होवे ६ सो नपदेश देने योग्य प्राशर्य है. किसीके आलोया दूषण दुसरे आगे न कहे १ सौम्य होवे २ संग्रह शील होवे ३ अन्निग्रह मति. होवे ४ हितकारी मर्यादा सहित बोले ५ अचपल होवे ६ प्रशांत ह. दय होवे, इत्यादि, तथा देश कुल रूप इत्यादि विशेष गुण करके संयुक्त होवे सो गुरु जैन सिशंतमें माना है. कार्य साधक होनेसें. जिसमें पूर्वोक्त गुण न होवे सो जैन मतके प्रवचन वेत्ताओने गुरु नहि माना है.
प्रश्न-सांप्रत कालके अनुनवसे पूर्वोक्त सर्व गुणवाला गुरु मिलना उर्जन लै; कोस्नी किसीसे किसी गुण करके दीन है, को अधिक है ऐसा तारतम्य नेद करके अनेक प्रकारके गुरु नपलब्ध होते है. तिस वास्ते तिनमें से किसको गुरु मानना चाहिये और किसकों गुरु न मानना चाहिये ऐसा दोलायमान म. नवाले हमकों क्या नचित है.? ।
उत्तर-“ मूल गुण संपनत्तो नदोस लव जोग न मोदेन । महुर वक्कम नपुण पवत्तियवो जदुत्तमि ॥ १३१ ॥ व्याख्या.
मूल गुण पंचमहाव्रत षट्काय आदि तिन करके संयुक्त स. म्यक सबोध, प्रधान प्रकर्ष नद्यमातिशय करके युक्त. ऐसे मूल
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