Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 376
________________ ११२ अज्ञानतिमिरनास्कर. “जिण सासणस्समूलं लिखायरिया जिणेहिं पन्नत्ता । इच्छ परितप्पमाणं तंजाण सुमंद सहीयं." अर्थ-जिन शासनका मूल निकाही शुद्धि तीर्थंकरोनें कही है, जो इसमें शिथिल है सो मंद श्रक्षावाला जानना. आहारकी शुद्धि बहुते साधुओंमें वसता पुष्कर है ऐसा मेरेको नासन होता है. इस वास्ते नकला होके आहार शुदि करना चाहिये. ज्ञानादिकके लानको क्या करणा है. मूल चूत चारित्रही पालना चाहिये. मुलके होते दुआही अधिक लानकी चिंता करणी नचित है. उत्तर-पूर्वोक्त कहना सत्य नहि है. जिस वास्ते गुरु परतंत्रतासे रहित होनेसे असरे साधुकी अपेक्षाके अनावसे लोनको अति पुर्जय होनेसे कण कणमें परि वर्तमान परिणाम करके एकला साधु आदार शुद्धिको पालनेही समर्थ नहि है. तथा चोक्तं. एगणियस्स दोसा इच्छी साणे तहेव पमिणीए, लिखवि सोहि महव्वय तम्हा सवि श्द्य एगमणं” ॥ १ ॥ एकले साधुकों स्त्रीसें दोष होवे, श्वानसे, प्रत्यनीकर्स नपव रूप दोष होवे, निदाकी शुदिन होवे, महाव्रत नहि दोवे इस वास्ते उसरे साधुको साथ रहना और चलना चाहिये. तथा “पिल्लि जेसण मिको" इत्यादि. अर्थात् एकला एषणाका नाश करे तब एषणाको अन्नावसे कैसे मूल नूत चारित्र पालने में समर्थ होवे. कोइ एकला शुइ निकाली ग्रहण करे तोली. “सव्व जीण पडिकुठं अगवथ्था थेर कप्प नेय । एगोय सुया नुत्तोकि इण तव संजमं अश्यारा" ॥१॥ इति व चनात्. अर्थ-सर्व तीर्थकसेने एकला विचरणा निषेध करा है, एकसा रहणा अनवस्थाका कारण है. स्थिवर कल्पका नाश नेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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