Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 374
________________ अज्ञानतिमिरनास्कर, र्यके गुण इस वास्ते कहते है, इनमें दोष लगे तो तिनका: प्रायश्चित्त आचार्य जानता है ज्ञानादि पंचाचार सहित होवे सो आचारवान् १ शिष्यके कहे अपराधको धारण करे सो आचार वान्न २ पांच प्रकारके व्यवहारका जानकार होवे सो व्यवहारवान् ३ नब्बीलए अपनीमकः लजापनोदको आलोयणा करने वालेकी लज्जा। दूर करणे समर्थ होवे जिसे आधोयण करे. ४ पालोचित दूषणकी सिद्धि करणे समर्थ होवे ५ निर्जापक ऐसा प्रायश्चित्त देवे जैसा आगला परजीव वह शके ६ अपरिस्सावी आलोचकके दोष सुणके अन्यजनो आगे न कहे ७ सातिचारको परलोकादिकमें नरकादिके दुःख दिखलावे - यथा दश प्रकारका प्रायश्चित्त जाननेवाला होवे, पालोचना १ प्रतिक्रमणा २ मिश्र ३ विवेक ४ व्युत्सर्ग ५ तप ६ छेद ७ मूल ७ अनवस्थाप्य ए परांचित. १० निरतिचार निकट घरसे निकादिका ग्रहणा गुरु आगे प्र गट करणा इतनांही करणा आलोचना योग्य प्रायश्चित्तं जानना. १ अना नोगादिसें विना पुंज्या झुंकादि धेके तिसमें जीव वध न हि दोवे तिसका मिथ्या :कृत देना सो प्रतिक्रमणाई २ संत्रम जयादिकसे सर्व व्रतो के अतिचार लगे आलोचना प्रतिक्रमण मिथ्या:कृत रुप नन्नयाई ३ उपयोगसे शुइ जानने अन्नादिनहण करे पी अशुः मालम हुआ तिस अनादिकका परित्याग करणा सो विवेकाई ४ गमना गमन विहारादिमे पञ्चीस नवा. स प्रमाण कायोत्सर्ग करणा सो व्युत्सर्गाई ५ जिसके सेवनेसे निनिकृतिकादि षटु मास पर्यंत प्रायश्चित दिजीए सो तपाई ६ जीस प्रायश्चितमें पंचकादि पर्यायका बेद करीए सो बेदाई ७. जिसमें फेर दीक्षा देनी पो सो मूलाई जबतक तपनसेवन चुके तबतक व्रतमें न स्थापन करीए सो अनवस्थाप्याई ए जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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