Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 373
________________ द्वितीयखम. ३गए स्वसमयमै स्थापन करना १ सम्यग् दृष्टिकों आरंजसे विदेपणा चारित्रमें स्थापन करना २ धर्मसें ब्रष्टकों धर्ममें स्थापन करना ३ चारित्र अंगीकार करनेबालेको तथा अपणेकों अनेषणीय नक्तादि निवारण करके हितार्थमें नद्यम करणा ४ दोष निर्घात विनयके चार नेद है. क्रोधीका क्रोध दूर करणा १ परमतकी कांदा वालेकी कांदा बेदनी २ आपणा क्रोध दूर करणा ३ अपणी कांदा निवारणी येह देश मात्र स्वरूप लिखा है. विशेष स्वरूप देखवाहो बे तो व्यवहार सूत्र नाष्यसें जानना. ये पूर्वोक्त सर्व एकठे करीए तो उत्तीस गुण आचार्यके होते है. तीसरे प्रकारे उत्रीस गुण लिखते है, छत्रीस गुणका तिसरा प्रकार. बतषद् , कायषद् , ये प्रसिद्ध है अकल्पादि षट्क ऐसे है. एक शिष्यक स्थापना कल्प ? दूसरा कल्प स्थापना कल्प शतिसमें प्रथम जिसने पिंडेषणा १ शय्या १ बस्त्र एषणा ३ पात्र एपका ये चारों अध्ययन जिस शिष्यने सूत्रार्थसे पठे नहि है तिसका पाल्या आहार वस्त्रपात्रादि साधुओको लेने नहि कल्पते है. तथा स्तुबह कालमे असमर्थ १ और वर्षा चतुर्मासमें असमर्थ स. मर्थ दोनोंको माये दीक्षा देनी नदि कटपते है. यह स्थापना कल्प प्रथम १ उसरा अनेषणीय पिंक १ शय्या २ वस्त्र ३ पात्र ४ ग्रहण नहि करणा ॥ १ ॥ गृहिनाजन कांस्यकटोरी प्रमुखमें नोजनादि नहि करे ३ पर्यंक मंचकादि ऊपर नदि बैबना ३ निदा वास्ते गयें गृहस्थके घरमें बैठना नदि ४ स्नान दो प्रकारका प्रांखकी पदमणामात्रन्नी प्रक्षालन करे तो देशमान सर्वांग दालना सर्वस्नान ये दोनो नहि करणा ए शोना विनूषा करणी वर्जे ६. सर्व अगरह दूए इनकों आचा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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