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द्वितीयखक.
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मेदुनाव नतं विणारागदासहिं ॥ १ ॥ " और जीववधनी जिसमें नदी है, आधाकर्म ग्रहणवतं. सो अनुष्ठान सर्वथा प्रमाणिक है. चारित्र धनवाले मुनिजनाको श्रागममें अनुज्ञात श्राज्ञा देनेंसें कथन करा है. पूर्वाचार्योंनें जो कथन करा है सो दिखाते है
"अवलंबिन कज्जं जं कि पिसमायरं तिगी यथा । श्रोबावराद बहु गुण सव्वेसिं तं मातु ॥ ७५ ॥ अबलंबनको प्राश्रित दोके जोजो संयमोपकारी कृत्य गीतार्थ सिद्धांतानुसारी आचरण करते है तिसमें दूषणतो अल्प है और निष्कारणें परिभोग करतो प्रायश्चित्त पामे और जिसमें बहु गुण होवे, गुरु, ग्लान, बाल, वृध, कपक प्रमुखोंके नृपष्टंनक उपकारकारक दोवे, मात्रक अर्थात् मोटे व पात्रादि परिभोगकी तरें तो सर्व चारित्रयोंकों प्रमाण है, धार्यरक्षित सूरि समाचरित पूर्वलिका पुष्पमित्रकी तरें. इहां धार्यरक्षित दुर्वलिका पुष्पमित्रकी आर्यरक्षित, दुर्बलकाऔ कथा जाननी आर्यरक्षित सूरिनें चारों अनुयोग र पुष्पाभित्रकी प्रथक् प्रथक करे, और मुनियोंकी दया करके माकथा. त्रक मोटे व पुत्रके परिभोगके श्राज्ञा दीनी, और साधु पुरुष साध्वीको दीक्षा न देवे, साध्वी साधु मागे आलोयला न करे, और साध्वीकों बेदसूत्र नहि पढाने. यद्यपि श्रागममें पूर्वोक्त काम करणेंनी कड़े है तोजी काल नाव देखी श्रार्यरक्षित सूरियें प्रशव नाव आचरणां बांधी सो सर्व अन्य आचार्योका तथ्य करके मानी. यहां कोई प्रश्न करे. उक्त रीतिसें तुमनें श्राचरणा जैसे अपने वडे वमेरोकी प्रमाण करी है. तैसे दमकोजी अपने पिता दादादिककी नानारंभ मिथ्यात्व क्रियाकी चलाइ प्रवृत्तिमें चलना चाहिये. उत्तर तिसको देते है, दे सौम्य ! तेरी समज ठीक नहि क्योंकि हमने संविज्ञ गीतार्थोका आचरित स्था
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