Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 356
________________ शए अज्ञानतिमिरनास्कर. दुएनी गुरुकी आज्ञासे नतु स्वतंत्र मौखर्यादिकी अतिरेकतासे इस वास्ते धन्य धर्म धनके योग्य होनेसें मध्यस्थ, स्वपद परपक्षोमे रागद्वेष रहित सतूनूतवादी ऐसा जो होवे सो देशना धर्म कथा करे. इति धर्मदेशनाका अधिकारी. धर्मदेशनाका स्वरूप. अथ धर्मदेशना किस तरेसे करे सो कहते है. सम्यक् प्रकारसें जाना है पात्र धर्म, सुनने योग्य पुरुषका आशय जिसने सो 'अवगतपात्रस्वरूपः.” तथाहि, बाल, मध्यम बुदि, और बुद्ध येह तीन प्रकारके पात्र धर्म सुणावने योग्य है. तत्र “ बालः पश्यति लिंगं मध्यमबुद्धिर्विचारयति वृत्तं । आगमतत्वं तु बुधः परीकते सर्वयत्नेन ॥ १ ॥ अर्थ-बाल लिंग देखते है, मध्यम बुद्धि आचरणका विचार करते है, और बुद्ध सर्व यत्न करके आगम तत्वकी परीक्षा करते है. इन तीनोंका देशना देनेकी विधि ऐसें है. बालको बाह्यचारित्र प्रवृत्तिकी प्रधानताका नपदेश करणा, और उपदेशकनें आपत्नी तिस बालके आगे बाह्य क्रिया प्रधान चारित्राचार सेवन करना, लोच करणा, पगामें नपानह, मौजा प्रमुख न पहनना, नूमिका नपर नकका एक आसन और एक उपर एक नपरपट्ट, बीगके सोना, रात्रिमें दो प्रहर सोना, शीतोष्णको सहना, नपवास वेला आदिक विचित्र प्रकारका तप महाकष्ट करना, अल्प नपकरण राखने, नपधि निर्दोष लेनी, आहारकी बहुत शुदि करणी. नाना प्रकारके अनिग्रह ग्रहण करके, विगयका त्याग करणा, एक कवलादिकसे पारणा करणा, अनियत विहार करणा. नवकल्प करणा, कायोत्सादिक करणा, इत्यादि क्रिया चारित्रकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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