Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 360
________________ शए अज्ञानतिमिरनास्कर. पिशाचसे मरनेवाले निज मतिकल्पित कुयुक्तियों करके विधि मार्गको निषेध करणेमे प्रवर्तते है. कितनीक क्रियांकों जे आगममें नहि कथन करी है तिनको करते है और जे आगमने निषेध नहि करी है-चिरंतन जनोंने आचरण करी है तिनको अविधि कह करके निषेध करते है, और कहते है-यह क्रियायो धर्मी जनांकों करणे योग्य नहि है. किन किन निकायों विषे " चैत्य कृत्येषु स्नात्रबिंबप्रतिमाकरणादि.” तिन विषे पूर्व पुरुषोंकी परंपरा करके जो विधि चली आती है तिसको अविधि कहते है. और इस कालकी चलाश्कों विधि कहते है. ऐसे कहनेवाले अनेक दिखला देते है. वे महा साहसिक है. प्रश्न. तिनोंने जो प्रवृत्ति करी है तिसकों गीतार्थ प्रसंशे के नहि प्रसंशे? नत्तर. तिस प्रवृत्तिको विशुगम बहुमान सार श्रधा है जीनकी ऐसे गीतार्थ सूत्र संवादके विना अर्थात् सूत्र में जौ नहि कथन करा है तिस विधिका बहुमान नहि करते है किंतु तिसका अवधारण अर्थात् निरादर करके मध्यस्थ नावसे उपेक्षा करके सूत्रानुसार कथन करते है. श्रोतासनोंको नपदेश करते है. ऐसे कथन करा शुइ देशना रुप विस्तार सहित तीसरा श्रक्षाका लक्षण. स्खलित परिशुद्धि श्रद्राका लक्षण. संप्रति स्खलित परिशुद्धि नामा चौथा श्रज्ञका लक्षण लिखतेहै. मूल गूण, नतरगुणकी मर्यादाका नल्लंघन करना तिसका नाम अतिक्रम अतिचार कहते है, सो अतिचारही मिडीर जायके पिंडकी तरे नज्वल गुण गणांके मलीनताका हेतु होनेसे मल अर्थात् मैल है; सो चारित्ररूप. चश्माको कलंककी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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