Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 361
________________ द्वितीयखम. ए तेरें कलंक है. सो कलंक प्रमादादि प्रमाद दर्प कल्पादि करके, आकुहि करके हिंसादिका करणा साधुको प्राये संजय नहि है; परंतु किसी तरें कांटो वाले मार्गमें यतनसें चलतांनी जैसे पगमें कांटा लग जाता है तैसे यतना करता दुआ जीव हिं. सादि हो जाती है. आकुट्टिका नसको कहते जो जानके करे ? दर्प नसको कहते है जो जोरावरील पिलचीने करे २ विकथा दि करके करे सो प्रमाद है ३ जो कारणसे करे सो कल्प कहते है ४ कदाचित इन चारों प्रकारसें हिंसादिक करे. . अथ दश प्रकार साधुको दूषण लग जाते है. दर्पसें १ प्रमादसे मा २ अजाणपणसें रोगपीडित होनेसे ४ आपदामें लगनेका दश पडनेसे ५ शंका नुत्पन्न होनेसे ६ बलात्कारसें 3 प्रकार. जयकरके वेष करके ए शिष्यादिककी परीक्षा वास्ते १० इन पूर्वोक्त कारणोंसे कदाचित् चारित्रमें अतिचारादिक कलंक लग जावे तिसकों गुरु. आगे आलोचन प्रगट करनेसे शुरू करे प्रायश्चित लेनेसें. कौन शुरू करे ? जिसको विमल श्रक्षा निष्कलंक धर्मकी अभिलाषा होके शिवन मुनिवत् . इति चतुर्थ लक्षण. इति उसरा नावसाधुका प्रवरा प्रक्षनाम लक्षण. ऐसी अक्षवाला मुनि अनिनिवेश असत् आग्रह करते रहित सुप्रज्ञापनीय होता है. प्रश्न-क्या साधुयोकेनी असत् ग्रह होता है ? उत्तर-होता है. मतिमोह महात्म्यसें. मतिमोह किस्से होता है. सो लिखते है. जैनमतके शास्त्रो में इस प्रकारके सूत्र है. विधिसूत्र १ उद्यम सूत्र ३ वर्णक सूत्र ३ जय सूत्र धानुत्सर्ग सूत्र ५ अपवाद सूत्र ६ ननय सूत्र ७ इन सातोंका स्वरूप ऐसे है. कितनेक विधमार्गके सूत्र है. यमा दश वैकालिकके पांचने अध्ययने. 48 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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