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अज्ञानतिमिरनास्कर. गुणानुरागसे दूषणांको कैसे दूषणांको गुण गुणांके मलीनता करणेंके हेतुयोंको झानादिकोंके अशुदि हेतुयोंको नाव साधु..
अथ गुणानुरागकाही लिंग कहते है.. थोडासानी जिसमें गुण होवे तिसके गुणकी नावसाधु प्रशंसा करे. कुपितकृष्णसारमेय शरीरे सितदंतपंक्तिश्लाथाकारक कृष्णवासुदेव वत्. और दोष खेश मात्रनी प्रमादसें स्खलित दुए अपने आपकों निस्तार मानें. धिग् है मेरेको प्रमाद शीलको. इस रीतिवाला नावयति होता है. कर्णस्थापितविस्मृतशुंगीखेमापश्चिमः दशपूर्वधर श्री वजस्वामिवत् . इहां कृष्णवासुदेव और वज्ज स्वामिकी कथा जाननी. लथा गुणानुरागकोही लिंगांतर कहते है.. क्योपशम नावसे पाये है जे ज्ञान दर्शन चारित्रादिः रूप गुण तिनकों जैसे माता प्रियपुत्रको पालती है. तैसें पाले. तथा गुणवानके मिलनेसे ऐसा आनंद मानता है जैसा चिरकालसें प्रदेश. गये. प्रियबंधवके, मिलने आनंद होता है. तद्यथा..
असतां संगपंकेन यन्मनो मलिनीकृतं तन्मेद्य निर्मलीभूतं साधुसंबंधवारिणा ॥१॥ पूर्वपुण्यतरोरद्य फलं प्राप्तं मयानघं संगेनासंगचित्तानां साधूनां गुणवारिणा ॥२॥
अर्थ-असत्पुरुषरूप. कादवका संग करनेसे मेरा मन मलिन दुआ मा, सो आज लत्लाधुका संबंधरूपः जलसें निर्मल हु: आ है. असंगचित्तवाले साधुओका गुणरूप जलसें मेरे पूर्वपुण्य रूप वृक्षका फल आज प्राप्त हुआ.
सया गुणानुरागसेही नद्यम करता है.नाव, सार सदलाव सुंदरू होके ध्यान अध्ययन तप प्रमुख साधुके कृत्योंमे.और का
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