Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 370
________________ ३०६ अज्ञानतिमिरनास्कर. आचार्यके छत्तीस गुण. आर्य देशमें जन्म्या होवे तिसका वचन सुखावबोधक होता है, इस वास्ते देश प्रश्रम ग्रहण करा १ कुल-पिता संबंधी दवा कु श्रादि नत्तम होवे तो यथोदिप्त-यथा नगया संयमादि नारके वहनेस अकता नहि है २ जाति माता अच्छे कुलकी जिसकी होवे सो जाति संपन्न होवे सो विनयादि गुणवान होता है ३ रूपवान होवे. " यत्राकृतिस्तत्र गुणा नवन्ति” ॥इस वास्तेरूप ग्रहण करा ४ संहनन धृति युक्त होवे, दृढ बलवान् शरीर और धैर्यवान् होवे तो व्याख्यानादि करणेसे खेदित न होवे ५-६ अनाशंसी श्रोताओंसें वस्त्रादिककी आकांदा-वांछना न करे ७ अविकण्यनो हितकारी-मर्यादा सहित बोले ७ अमायी-सर्व जगे विश्वास योग्य होवे ए स्थिरपरिपाटी परिचित ग्रंथ होवे तो सूत्रार्थ लुले नहि १० ग्राह्यवाक्य सर्व जगे अस्खलित जिसकी आज्ञा होवे ११ जितपर्षत्-राजकी सन्नामें कोनको प्राप्त न होवे १२ जितनिशे-जितीहोवे निंदतो प्रमादि शिष्यको सूतांको स्वाध्यायादि करणे वास्ते सुखे आगता करे. १३ मध्यस्थसर्व शिष्योमें समचित्त होवे १५ देशकाल नावझ-देशकालनावका जानकार होवे तो सुखमें गुणवंत देशमें विहारादि करे १५ १६-१७ आसन्नलब्धप्रतिन्नः शीघ्रही पर वादीको उत्तर देने समर्थ होवे १७ नानाविधदेशनाषाविधिज्ञः नाना प्रकारके देशोकी नापाका जानकर होवेतो नाना देशांके नत्पन्न हुए शिष्यों को सुखे समजाय शके १७ ज्ञानादि पंचाचार युक्त होवे तो ति. सका वचन मानये योग्य होता है. २०-२१-२२-२३-२४ सूत्रार्थ तयुनयविधिज्ञः सूत्रार्थ तउन्नयका जाननेवाला होवे तो नत्सर्गापवादका विस्तार यथावत् कह शकता है ५५ आहारण दृष्टांत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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