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द्वितीयखम.
ՋԵ3 चित् अशुधनी ग्रहण करे तो दोष नहि. यह ज्ञापन करा है. य. तोऽनाणि पिंडनियुक्ती.
“ऐसो आहार विही जह नणिो सव्वनावदंसीहिं । धम्मावसग्ग जोगा जेण नहायंति तं कुज्जा॥१॥” तश्रा, “कारण पमिसेवा पुणनावेण सेवणति दळव्वा । आणा तिश्नवे सोसुक्षे मुखहेनत्ति ॥ ॥ इन दोनों गाधाका नावार्थ यह है. जिस्से आवश्य करणे योग धर्म कृत्यकी हानि न होवे, ऐसा आहारादि ग्रहण करणा नगवंतने कहा है । और जो कारणसें दूषण सेवना है सो नहि सेवना है. सो दोष सेवना शुभ है, मोकका हेतु है २. जिनकी वसति मनोहर चित्र सहित होवे ऐसी वसतिमें रहनेवालेके अनगारपणेकी हानि है. तथा नग्न दुइ वसतिको समरावे तोन्नी साधु नहि, षट्कायका वध होनेसें. तथा तुलीगदयला और मसुरकगिज्यातकीया ये दोनों प्रतिक है.. आदि शब्दसें तुलीका खल्लक कांस्य ताम्रके पात्रादि ग्रहण करणे यहनी साधुको नहि कल्पते है. “श्चाई असमंजसमणे गहा खुद्द चिठीयं लोये बहुएहिवि आयरियं नपमाणं सुइ चरणाणं ॥ ७ ॥” इत्यादि इस प्रकारका असमंजसमणा जो कहना सोनी नचित नहि शिष्ट जनांको.अनेक प्रकारका कुश्तुच्छ जीवांका आचरण लिंगीयोने बहुतोनेंनी आचरण करा है तोनी प्रमाण आलंबनका हेतु शुइ चारित्रीयोकों नहि है. इस आचरणको अप्रमाणता इस वास्ते है; सिहांतमें निषेध करणेसें, संयमके विरोधी होनेसें, विना कारण सेवनसें; ऐसे आनुषंगिक कथन करके प्रारंजितकी समाप्ति करते है. “ गोयत्य पारतंता इय विहं मग्गमगुसरंतरस जाबजल वुत्तं दुप्पसहं जग्चरणं ॥ नए ॥" गीतार्थकी पारतंत्रता आगमके जानकारकी आझासें जैसे पूर्व दो प्रकारका मार्ग एक आमरणानुसारी दुसरा संविङ्ग गीतार्थ वृहोकी
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