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हितोयखंम.
| ՋԱԱ वल व्यरूप अथवा शरीरके बाहीर काममें आवे-नेषज बहुत व्यका नेलसें बनी अथवा शरीरके अभ्यंतर नोगमें आवे श्राशब्दसें अन्यन्नी संयमोपकारी वस्तु आप देवे, अन्य जनोंमें दीलावे, सम्यक प्रकारे निष्पादन करे, श्री युगादि जिनाधीश जीव अन्नय घोषवत् गुरुके तां नक्तंच
अन्नं पानमोषधं बहुविधं धर्मध्वज कंबलं, वस्त्रं पात्र मुपाश्रयश्च विविधो दंडादि धर्मोपधिः। शस्तं पुस्तकपीठकादि घटते धर्माय यच्चापरं, देयं दानविचक्षणैस्तदखिलं मोक्षार्थिने भिक्षवे ॥१॥
अर्थ-दान में निपुण ऐसा पुरुषोए अन्न, पान, विविध औषध, रजोहरण, कांबल, वस्त्र, पात्र नपाश्रय, विविध दंम प्रमुख धर्मका नपधि और नत्तम पुस्तक पीठक, प्रमुख सब मोहाथीं मुनिकुं देना चाहिए.
जो मन वचन काया गुप्तिवाले मुनिजनांको शुइ नावर्से औषधी आदिक देवे सो जन्म जन्ममें निरोगी होवे.
नाव नामा चौथा नेद लिखते है. गुरुको बहुमान देवे, प्रीतिसार मनसे श्लाघा करे, संप्रति महाराजवत्. गुरुके चित्तके अनुसारे चले, गुरुको जो काम सम्मत होवे सो करे. नक्तंच
“सरुषि नतिः स्तुतिवचनं, तदन्निमते प्रेम तहिषि शेषः दानमुपकारकीर्तन, ममूलमंत्रं वशीकरणं ॥१॥
____ अर्थ-क्रोधीसे नमस्कार और स्तुति वचन, तिनका स्ने. हीसे प्रेम और वेषीसे वेष, दान, नपकारकी प्रशंसा ओ मूल मंत्र शिवायका वशीकरण है. इति.
अथ प्रवचन कुशलनामा बग गुण लिखते है, सूत्र में कुश ल १, अर्थ सूत्रानिधेय तिसमें कुशल २, नत्सर्ग सामान्योक्तिमे
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