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अज्ञानतिमिरनास्कर. दि अहारह दूषणके जितनेवाले जिनके कहे सिशंतको वर्जके, क्योंकि जीनागम जूग नहि है. नक्तंच
“रामाछाषा: मोहाचा चास्यव्यते धनतं । यस्य तु नैते दोषास्तव्यानृतकारणं किं स्यात् ॥ १॥"
अर्थ-जे राग, क्षेत्र और मोहसें जूग वाक्य बोलते है, जीसकुं ए दोष नहिं लागता है, सो असत्यका कारण क्युं न होता है.
जिनागम पूर्वापर विरुक्ष नहि है, इस वास्ते सत्य है. तथा धर्मका मूल दया है और जिनागममें जो क्रिया करणी कही है सो सर्व दयाकीही वृद्धि करती है, इस वास्ते जगवंतने प्रथम सामायिक कथन करा है; और दाति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, अकिंचन, ब्रह्मचर्यादि है ये सर्व दयाके पालक कथन करे है. इस वास्ते जिनागम समान कोश्नी पुस्तक प्रमाण प्रतिष्टित नहि है. इस वास्ते सर्व क्रिया, चैत्यवंदनक, प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमणादि (चैत्यवंदन, गुरुवंदन, प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण विधि सर्व धर्मरत्नकी वृत्तिसें जाननी) बहुत विस्तार है इस वास्ते इहां नहि लिखी है. सर्व विधि वरुण महाश्रावकवत् करे. इति दशमा नेद.
अथ अग्यारमा यथाशक्ति दानादिकमें प्रवर्ने सो गुण लिखते है. अपनी शक्ति न गोपवे और जिस्से आत्माको पीमा न होवे, परिणाम नाम न होवे तेसे दानादि चार प्रकारके धर्ममें चशेदय राजाकी तरें आचरण करे. कैसे आचरण करे जैसे बदुत काल तक दानादि करणेमे सामर्थ्य होवे.शहां नावार्थ यह है. बहुत धन होवे तो अति तृष्णावान् कृपण न होवे. धन योमा होवे तो अति नदार न होवे, जिस्से सर्व धनका अन्नाव होवे
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