Book Title: Agnantimirbhaskar
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 337
________________ द्वितीयखम. २३ धकी तरें क्रममें प्रवीण जरामरण सि होवे. नवनीरू जीवांको शरण रहितांको जाणीने स्वाधीन अन्नयदान नव्य जीवने देना चाहिये. इति अन्नयदान. धर्मोपग्रददान अनादिदान प्रारंनसे निवृत्ते मुनियोंको देवे, इन दानके प्रत्नावसे तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, मंगलीक जगतमें अधिक पछीवाला होता है, सो सुपात्र दानसे होता है. जैसें नगवान श्री ऋषन जगतनाथ दुआ घृतके दान देनेस,और मुनियोंको नक्तदान देनेसे जैसे जरत चक्रवर्ती दुधा. मुनिवरका दर्शन करनेसे एक दीनका पाप नष्ट होता है, और जो को मुनिको दान देवे तो तिसके फलका तो क्या कहेना है. ज्यां समनाववाला मुनि प्रवेश करे तो वो घरनी पवित्र है. साधु विना जि नधर्म कदापि प्रगट नहि हो सकताहै, इस वास्ते मुनियोंको शुद दान गृहस्थने देना चाहिये. और सुपात्र विना अनुकंपादान सर्व जीव नूखे, प्यासे, नंगे, रोगी प्रमुखको अपनी शक्ति अनुसारे देना चाहिये. गृहस्थोसें शुरू तपत्नी नहि दो शकता है, और विषयासक्तोंसें शीलनी पूर्ण नहि पल शकता है, भारती होनेसे नावी कठिन होता है, इस वास्ते गृहस्थके दानही मुख्य स्वाधीन है. ऐसे दानके तीन नेद है. शीलका विचार, शील है सो अपने कुल फर ननस्थलमें चश्माकी तरें जगतमें कीर्त्तिका प्रकाशक है. नर, सुर, शिव सुखका करणेवाला शील है सो सदा पालना चाहिये. जाति, कुल, रूप, बल, श्रुत, विद्या, विज्ञान, बुदि करके रहितनी शोलवान् पुरुष सर्वत्र पूजनीय है, सो शील दो तरेंका है, देश और सर्व; तिनमें देशशील सम्यक्त्व मूल बारा व्रत गृहस्थके है और साधुमोके अगरह इ 40 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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