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र अज्ञानतिमिरजास्कर. अपवर्गका सुख पामे, और पापसे निवृत्ति करे तो नरक, तिर्यंचके दुःख पापसे बुटे. जो अपूर्व ज्ञान पढे सो अन्य नवमें तीर्थकर पद पामे, जो पढाचे परकों सम्यग् श्रुत तिसका फल हम क्या कहे यद्यपि बहुत दिनोंमें एकपद धारण करे, पदमें अर्ध श्लोक पढे तोनी नद्योग न गेडे, जो ज्ञान पढनेकी इच्छा है तो अज्ञानी प्राणीनी बहुमान पूर्वक माषतुषवत् ज्ञान पढने नयम करे तो शीघ्रही केवल ज्ञान पामे, यह ज्ञान निर्वाणका कारण और नरकका वारणेवाला है. नला मुनित्ती ज्ञान रहित होवे तोनी कदापि मुक्ति न होवे. संविज्ञपक्षी जैसे सम्यक्त्व स हित सुदृढ ज्ञान धरता है सो अच्छा है; परंतु ज्ञान विहीन तीव्र तप चरणमें तत्पर होवे तो ठीक नहि. जो जीव जिनदीक्षा पाकर पुनः पुनः संसारमें ब्रमण करता है सो परमार्थके न जाननेसे, ज्ञानावरणके दोषसे ज्ञानहीन चारित्रमें नद्यतनी निवाण न पामे, अंधेकी तरे दोमता हुश्रा संसार कू में पमे. अ. ज्ञानी वैराग्यवाननी जिननाषित साधुश्रावकधर्म विधि पूर्वक कैसे कर सके. जे सकल जगत को करतलगत मुक्ताफसवत् जानते है और मह, सूर्य, चं, नक्षत्रकी आयु जानते हे ये सर्व ज्ञानदानका प्रत्नाव है.
दानका स्वरूप. ज्ञान दान देता दुआ जगतमें जिन शासनको वहता है, श्री पुंडरीक गणधरकी तरे श्रमोल परम पद पावे. तिस वास्ते ज्ञानदान देना चाहिए, और ज्ञानवानमुनिके पीछे चलना चाहिये और कल्याणके श्चकनें सदाझानकी त्नक्ति करणी चाहिये. इति ज्ञानदानः
उसरा अन्नय दान--सर्व जीवांकी रक्षा करणी ऐसा दयाधर्म प्रति है, एकही अजयदान सर्व जीवांको देकर वजायु
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