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अज्ञानतिमिरनास्कर. होवे, मैत्र्यादि गुण नूषित होवे, सदाचारमें अममादी होवे, सो नाव साधु कहा है. यतः-“ निर्वाण लाधकान् योगान् यस्मात् साधयतेऽनिशं । समश्च सर्वभूतेषु तस्मात् साधुरुदाहृतः” ॥१॥ झांत्यादिगुणसंपन्नो, मै यादिगुण नूषितः । अप्रमादी सदाचारे जावसाधुः प्रकीर्तितः ॥ २ ॥ अर्थ-जे निर्वाणका साधने वाला योगकुं सदा साधते है. और सर्व प्राणी मात्रमें समन्नाव रखते है, नसकुं साधु कहते है. जे कमा प्रमुख गुणवाले है, मेत्री आदि गुणधी सुशोनित है, प्रमाद रहित और सदाचारी है, सो नावसाधु कहा है. १-२
प्रश्न-कैसे उद्मस्थ जीव नाव साधुको जाणी शके ? उत्तर-लिंगो, चिन्हो करके जाणे, प्रभ-वे चिन्ह कौनसे है ?
उत्तर-चेही लिखे जाते है. तिस नाव साधुके लिंग चिन्ह सकल संपूर्ण मोक्ष मार्गानुपातिनी मार्गानुसारिणी क्रिया पनि लेहनादि चेष्टा करे तथा करणेकी इच्छा प्रधान धर्म संयममें होवे तथा प्रज्ञापनीयत्व असत् अनिनिवेशपणेका त्यागी अर्थात् कदाग्रहका त्यागी, कुटिलतासे रहित तथा क्रिया सुविहित अनुष्टानमें अप्रमाद अशिथिल पणा तथा तप, संयम, अनुष्टानमें यथा शक्ति प्रवर्त्तना तथा महानुगुणानुराग गुण पक्षपात तथा गुरु आशा आराधन धर्माचार्यके आदेशमें वर्तना, यह सात लकण नाव साधुके है.
भाव साधुका लिंग. अथ इनका विस्तारसे स्वरूप लिखते है.
अन्वेषण करीए अनिमत स्थानकी प्राप्तिके ताई पुरुषोने जो, सो मार्ग कहीये है. सो मार्ग व्य, नाव नेदोंसें दो तरेका
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