________________
२० अज्ञानतिमिरनास्कर. संसारका स्वरूप-उखरूप है. जन्म, जरा, मरण रोग, शोक आदि करके ग्रस्त होनेसे दुःख रूप है, तथा दुःख फल है. जन्मांतरमें दुःख नरकादि फल है. पुःखानुबंधि वारंवार दुःख बांधनेसे तथा विझबनाकी तरें- जीवांको सूर, नर, नरक, तिर्य. ग, सुन्नग, उनगादि विचित्र रूप है. विझबना जिसमें ऐसा चार गतिरूप संसारको असार सुख रहित जागी इसमें रति, धृति न करे, श्रीदत्तवत् . इति चौथा नेद.
अथ विषयनामा पंचम नेद लिखते है, क्षणमात्र जिनसे सुख है ऐसे जो शब्दादि पांच विषय जिनको जहर समान परिणाम खोटे जानता हुआ, जैसे विष किंपाक फल खाते दुऐ, मधुरस्वाद दिखलाता है और परिणाममें प्राणाका नाश करता है ऐसेही विषय विरसावसान है, ऐसा जानता हुआ नाव श्रावक तिनमें आसक्त न होवे, जिनपालितवत् . नवनीरु संसारवासमें चकित मनवाला विषयमें क्यों नदि गृह करता है ? तिसने जाना है तत्वार्थ जिनवचन श्रवण करणेस वे जिन वचन यह है. विषयमें सुख नहि है, निःकेवल सुखानिमान है परंतु सुख नहि है, जैसे पित्तातुर और धतुरा पीनेवालेको नपलमें और सर्व वस्तु सूवर्ण दिखती है. तथा ये विषयन्नोग में मधुरपणा मालुम होता है परंतु विपाकमें किंपाक फल समान है. पामा रोगके खाज समान है, दुःखका जनक है, मध्यान्ह कालमें मृगतृष्णा तुल्य है, विषयमें कुयोनि जन्म गहनमें पडता है, लोग महावैरी है, अनित्य है, तुब है,मलमूत्रकी खान है, इत्यादि. इति पांचवा नेद.
__ अथ आरंजनामा ग नेद लिखते है. जिस व्यापारमें बहुत जीवांको पीमा होवे, खर कर्मादिमें सो आरंन वर्जे. क
है, इत्यादि.
श
लिखते है. जि
. क
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org