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अज्ञानतिमिरनास्कर. गया आतपकी तरे विरोध है, नक्तंच
“शाग्येन मित्रं कलुषेण धर्म, परोपतापेन समृमिनावं । सुखे न विद्यां परुषेण नारी, वांछंति ये व्यक्तमपंमितास्ते ॥ १ ॥
अर्थ-जे पुरुष शठतासे मित्र, मलिन तासे धर्म, परोपतापसे समृद्धि, सुखसें विद्या और कठोरतासे नारीकुं श्चता है सो पुरुष पंमित नहि है, इति चतुर्थ नेद.
जेकर श्रावक पूर्वोक्त चारों गुणोंसें विपरीत वर्ते तो धर्मकी निंदा करावणेसे अपनेकों और धर्मकी निंदा करनेवालोंको जन्म तकनी बोधि प्राप्त नहि होवे है. इस वास्ते श्रावक ऋजु व्यवहार गुणबाला होवे.
गुरु शुश्रूषा नामा पांचमा नाव श्रावकका लक्षण लिखते है. गुरुके लक्षण ऐसे है,
धर्मज्ञो धर्मकर्ताच, सदा धर्मप्रवर्तकः । सत्वभ्यो धर्मशास्त्राणां देशको गुरुरुच्यते॥१॥
अर्थ-धर्मकुं जाननेवाला, धर्मका कर्ता, सर्वदा धर्मका प्रवर्तक और प्राणीयोकुं धर्मशास्त्रोका उपदेशक होवे सो गुरु कहेवाता है.
जो इन गुणों संयुक्त होवे सो गुरु होता है. तिस गुरुकी शुश्रूषा सेवा करता हुआ, गुरु शुश्रुक होवे सो चार प्रकार है. प्रश्रम सेवा नेद लिखत है. यथावसरमें गुरुकी सेवा करे, धर्मशान आवश्यकादिकोंके व्याधात न करणेसें, जीर्णश्रेष्टिवत्. इति दुसरा कारण नेद. सदा गुरुके सन्नुत गुण कीर्तन करणेंसें प्रमादी अन्य जीवांको गुरुकी सेवा करणेमें तत्पर करे. पद्मशेखर महाराजवत. इति श्रोषध नेषज प्रणामनामा तिसरा नेद-औषध के.
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