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द्वितीयखम.
३५३ सेवा नक्ति करे, गुरु जातेको पहुचाने जावे, यह आठ प्रकारका विनय है. पुष्पसालसुतवत्. इति तिसरा नेद. अननिनिवेश-हठ रहित गीतार्थका कहा अन्यथा न जाने, सत्य माने, श्रावस्ती नगरीके श्रावक समुदायवत् . इति चौथा नेद. जिनवचन गुण रुचि पूर्वक-सम्यक्त पूर्वक सुने, विना रुचि श्रवण करना व्यर्थ है. क्योंकि सम्यक रत्न शश्रूषा और धर्मराग रूप होनेसे. शुश्रूषा और धर्मराग इन दोनों सम्यकके सहनावि लिंग करके प्रसिद है. जयंती श्राविकावत्, इति पांचवा नेद. इति नावश्रावकका गुणवंतनामा तिसरा नेद.
ऋजु व्यवहारी नामा नावश्रावकका चौथा गुण लिखते है. ऋजु व्यवहारगुणके चार नेद है. यथार्थ कहना, असंवादी वचन धर्म व्यवहारमें, क्रय विक्रय व्यवहारमें, सादी व्यवहारादिकमें सत्य बोलना. इसका नावार्थ यह है परवंचन बुहिसें धर्मको अधर्म और अधर्मको धर्म नाव श्रावक न कहे, सत्य और मधुर वचन बोले, और क्रय विक्रयमेंनी वस्तुका जैसा नाव दोवे तैसाही कहै; मोघेको सस्ता और सस्तेको मोघा न कहै, राजसन्नामेंनी जूग बोलके किसीको दूषित न करे, और जिन बोलनेसे धर्मकी दासी होवे ऐसा वचननी न बोले, कमल श्रेष्टिवत्, इति प्रथमन्नेद. अब दुसरा नेद लिखते है, अवंचि. का क्रिया-परको दुःख देनेवाली मन वचन कायाकी क्रिया न करे, हरिनंदीवत् . इति उसरा नेद. अशु व्यवदारसें जो नाविकालमें कष्ट होवे तिसका प्रगट करना जैसे हे न ! मत कर पाप चौरी आदिक जिस्से इस लोक परलोकमें दुःख पावेगा. नश्श्रेष्टिवत् . इति तीसरा नेद.
सदनावसे मैत्रीनावका स्वरूप कहते है. निष्कपटसें मैत्री करे, सुमित्रवत् क्योंकि मैत्री और कपटनावको परस्पर
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