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द्वितीयखम.
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तीसरा जावजीव अथवा योमे काल तां व्रत ग्रहण करे तो गुरु प्राचार्यादिकके समीपे ग्रहण करे, आनंदवत् व्रतके लेनेमें जो चर्चा है सो श्रावक प्रज्ञप्तिसें जान लेनी ३.
चौथा प्रतिसेवनं अर्थात् पालना सो रोगांतक में तथा देवता मनुष्य, तिर्यंचादिकके उपसर्ग हुए जैसे जांगेसें ग्रहण करा है तैसे पाले परंतु चलायमान न होवे, श्रारोग्यद्विजवत्. नृपसर्ग में कामदेव श्रावकवत. इति प्रथम कृतव्रतकर्मका स्वरूप.
संप्रति शीलवान् दुसरे लक्षणका स्वरूप लिखते है. प्रथम श्रायतन सेवे. प्रायतन धर्मी जनोके एकवे मिलनेके स्थानको कहै. जहां साधर्मी बहुत शीलवंत, ज्ञानवंत, चारित्राचारसम्पन्न दोवे सो सेवायतन वर्जे. अनायतन यह है. जीलपल्लीचौरोका ग्रामाश्रय पर्वत प्रमुख हिंसक दुष्ट जीवोंके स्थान में वास न करे. तथा जहां दर्शन जेदनी सम्यक्कके नाश करनेवानिरंतर विकथा होती होवे सो महापाप अनायतन है, सो वर्जे इति प्रथम शील.
विना काम परघरमें न जावे - जावेतो चौर यारकी शंका दोवे. दुसरा शील.
नित्य नद्नट वेष न करें. शिष्टोंको असम्मत वेष न पेदरे. तीसरा शील.
विकार देतु, राग द्वेषोत्पत्तिहेतु वचन न बोले चौथा शील. बालक्रीमा, मूर्खोका विनोद जूयादि व्यापार न करे, पांचमा शील. जो अपना काम सावे सो मोठे वचन पूर्वक साधे बा शील. ये पूर्वोक्त पटू प्रकारके शील युक्त होवे सो शीलवान्र श्रावक है.
तीसरा गुणवंतका स्वरूप लिखते है.
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