________________
२५०
अज्ञानतिमिरनास्कर.
नाव श्रावकका छ लक्षण, पूर्वोक्त नाव श्रावकके लक्षण पूर्वसूरि सद् गुरु ऐसे कहते हुए है. करा है व्रत विषय अनुष्टान कृत्य जिसने सो कृतव्रतकर्मा १ शीलवान २ गुणवान् ३ ऋजु-सरल मन ४ गुरु सेवा कारी ५ प्रवचन कुशल-जैनमतके तत्वका जाननेवाला ६ एसा जो होवे सो नावश्रावक होता है. इन ग्रहों गुणांका विस्तारसें स्वरूप लिखते है. - उहाँ लिंगोंमेंसें प्रथम कृतव्रतकर्माके चार नेद है. श्रवण करणा १ ज्ञानावबोध करणा २ व्रत ग्रहण करणा ३ सम्यक् प्रकारे पालना ४ तिनोंमें प्रथम सुननेकी विधि लिखते है. विनय बहुमान पूर्वक गीतार्थसे व्रत श्रवण करे. यहां चार नंग है, कोश्क धूर्त वंदना करके ज्ञान वास्ते सुने परंतु वक्ता विषे नारी कर्मी होनेसे बहुमान न करे. दुसरा बहुमानतो करे परंतु विनय न करे, शक्ति रहित रोगी आदि. तीसरा दोनोंदी करे, निकट संसारी. कोश्क नारी कर्मी दोनोंही नहि करे सो अयोग्य है. इस वास्ते विनय बहुमान सार पुरुष गीतार्थ गुरु पासे व्रत श्रवण करे. गीतार्थ उसको कहते है जो वेद ग्रंथोके गीत पाठ,
और अर्थका जानकर होवे. गीतार्थ विना अन्यसे सुने तो विपरित बोधका हेतु होवे. यह व्रत श्रवण नपलक्षण मात्र है तिस्से जो ज्ञान सुने सो गीतार्थसे सुने, सुदर्शनवत्, यह एक व्रत धर्म. १. . . . . . . . . . - सर्व व्रतोके नेद जाने तथा सापेक, निरपेक्ष और अतिचारोको जाने. ( वारां व्रतांका स्वरूप जैनतत्वादर्श, धर्मरत्न, श्रावश्यकादिसे जान लेने ). संयम, तपादि सर्व बस्तुके स्वरूपके बोधवाला होवे, तुंगीश्रा नगरीके श्रावकवत्. २.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org