________________
अज्ञानतिमिरनास्कर. पेक्षासे चार प्रकारके श्रावक जानने, ये नामादि चारोमें किसमें समवरतते है.
नत्तर-व्यवहार नयके मत करके य चारो पूर्वोक्त नाव श्रावकही हैं, श्रावकवत् व्यवहारकरनेसें. और निश्चय नयके मत करके शौकन समान और खरंट समान ये दोनों प्राये मिथ्यादष्टि होनेसे व्यश्रावक है. शेष षट् नावश्रावक है. इन आगेका स्वरूप आगममें ऐसा कहा है.
" चिंत जर कजाई न दिह खलिनविहोइनिनेहो । एर्गत वबलो जरजस्स जगणी समोसम्लो ॥१॥” नावार्थ साधुओ के सर्व कार्य आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, ओषधी प्रमुख जे होवे तिनके संपादन करनेकी चिंता राखे, संपादन करे; कदापि प्रमादोदयसे साधु समाचारीसें चूक जावे तब अांखोसे देखकेनी स्नेह रहित न हौवे. साधु जनांका एकांत वत्सलकारक होवे सो माता समान श्रावक कहते है.
___“हियए ससिणेहोच्चिय मुणीण मंदायरो विणयकम्मे । समो साइणं परान्नवे होश सुसहाओ" नावार्थ-हृदयमेंतो साधुओ नपर बडुत स्नेह रखता है परंतु साधुओकी विनय करने में मंद आदरवाला है, साधुओको संकट पझे तब नली रीते. साहाय्य करे सो श्रावक ना समान है.
___“जित्तसमायो मागाईसिंरूसअपुबिनकजें । मन्नतो अप्पाणं मुशीण सयणान अझहियं” ३ नापार्थः-जब साधु किसी कार्यमें न पुढे तब रूस जावे परंतु साधुको अपने स्वजनोसेंनी अधिक मानता है सो मित्रसमान श्रावक है.
“योनिदप्पेही पमायखलियाणि निञ्चमुच्च रई सहो । तवनि कप्पो साहु जणं तणसमं गण" " नावार्थ-अनिमानी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org