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हितीयखम. काष्ट वत कठिन होवे, बीड देखनेवाला होवे, प्रमादसे चूक जावे तो तीस दोषको नित्य कहे, साधु जनोको तृण समान गणे, सो श्रावक शौकन तुल्य है.
उसरे चतुष्कमें-“गुरु नपिन सुत्तथ्लो विधिंजर अवितहा मणे जस्स । सो प्रायंससमाणो सुसावन वन्निनसमए " ॥१॥ नावार्थ-गुरुका कदा दुश्रा सूत्रार्थ अस्तिथ्यपणे जिसके मनमें बिंबित होवे सो आदर्श समान सुश्रावक सिशंतमें कहा है.
“पवणेण पाडागाश्व नामिज जो जणेन मूढेण। अविगिठिय गुरुवयणो सो होइ पमाश्यातुलो” श्नावार्थ-जो मूखोंके कदनेसेन्नी पताकाकी तरे फिर जावे, गुरुका वचनका जिसको निश्चय नहि है सो पताका समान है.
“पमिवन्नमसंग्रहं नमूयश्गीयथ्य समणुसिगेवि । पाणु समाणो एसो अप्पनसी मुणिजणेशवरं ॥ ३ ॥” नावार्थ-जो असत् प्राग्रह पकमा है तिसको गीतार्थके कहनेसेनी नहि गेते है सो स्थाणु अर्थात् खीला, खुंटा, वुठ समान श्रावक है इतना विशेष है मुनिजनों विषे तिसका वेष नहि.
“नम्मग्ग देनस निन्हवोसि मूढोसि मंदधर्मोसि । श्य सम्मं पिकहंत खरंट एसो खरंट समो." नावार्थ. तुं उन्मार्गका उपदेशक है, निन्दव है, मूढ है, मंद धर्मी है. इत्यादि. शुक्ष साधुको पूर्वोक्त वचनो करके जो खरंट कलंक देवे सो खरंट स मान है. जैसे ढीली अशुचि व्य स्पर्श करनेसे पुरुषकोही लबेमती है तैसे शिक्षा देनेवालोकोही दूषित करे सोखरंट समान. . इन पूर्वोक्त प्रागे नेदोंमेंसे शौकन समान और खरंट ये दोनो निश्चय नयसेतो मिथ्या दृष्टि है और व्यवहार नयॐ श्रावक है, क्योंकि जिनमंदिरादिकमें जाते है.
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