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अज्ञानतिमिरनास्कर वालेकी समज और बुझिनी ऐसी होती है. क्षमा सर्व सुखांका मूल है, और कोप सर्व सुखका मूल है, और विनय सर्व गुगांका मूल है; और मान सर्व अनर्थोका मूल है. जैसे सर्व स्त्रीयोंमें अईतकी माता प्रधान है, मणीप्रोमं जैसे चिंतामणि प्रधान है, बतायोम जैसे कल्पलता प्रधान है, तैसे सर्व गुणांमें कमा प्रधान है. कमा धारण करी परिसह और कषायको जीती अनंत जीव आदि अनंत, परम पदको प्राप्त हुए है. इस हेतुसे पुरुषको क्षमावान होना चाहिये. और कमावालाही पुरुष प्रकृति सौम्य गुणवाला होता है, और ऐसे गुणवानकी संगतसे अन्य जीवन्नी प्रशम गुणवान् हो शकते है. यथा
संतप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते । स्वातौ सागरशुक्तिसंपुटगतं तज्जायते मौक्तिकं, प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतो जायते ॥१॥
इस वास्ते पुरुषको प्रकृति सौम्य होना चाहिये इति तृतीयो गुणः
लोकप्रिय गुणका स्वरूप लिखता है.
इस लोक विरुः १ परलोक विरु६ २ नन्नय लोक विरुः ये तीनो वर्जे. तीनमें इह लोक विरु६ नीचे मुजब है.
परकी निंदा करणी, विशेष करके गुणवंतकी निंदा करणी सरलकी और धर्मवालेको हांसि करणी, बहुत लोकोके पूजनीककी ईर्ष्या करणी, बहुत लोगोका विरोधीकी साथ मित्रता करणी, देशके सदाचारका नल्लंघन करणा, निषि वस्तुका नोग करणा, दाताकी निंदा करणी, नले पुरुषको कष्ट पड़े तो दर्ष मानना, ते
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