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हितीयखम. सुहे, निश्ए सासए, समिञ्च लोय खेयन्नेहिं पवेशए ” इत्यादि. भावार्थ:-सुधर्मस्वामि जंबूस्वामिको कहते. हे शिष्य ! जैसे मैने नगवंत श्रीमहावीरजीके मुखारविंदसें सूना है तैसें में तु. जको कहता हूं. नगवंतश्री महावीरनें कहा है कि अतीत कालमें अनंते अत नगवंत हो गया है और जो अहंत नगवंत वर्तमान कालमें है और जो आगामि कालमें अनंत होवेंगे, तिन स. र्वका यहि कहना हुआ है, तथा होवेगा कि सर्व प्राणी, बे इंश्य तीनेडीय, चतुरिंद्रीय, सर्वनूत वनस्पति, सर्व पंचेंडीयजीव, सर्व सत्व अर्थात् षटकाय, पृथ्वीकाय, अपकाय, अनिकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, वसकाय, इन षट्कायके जीवांको हनना नहि. तथा इन जीवोंसे जोरावरीसें कोई काम नही कराना. शारीरिक और मानसिक पीमा करके ननको परितापना नहि करणी. यह जीवअहिंसारूप शुभ धर्म है, नित्य है शाश्वता है, सर्व लोकके पीमाकी जाननेवाला सर्वज्ञ अईत नगवंतने कथन करा है. तथा--
अहिंसैव परो धर्मः शेषास्तु व्रतविस्तराः। अस्यास्तु परिरक्षायै पादपस्य यथावृतिः॥१॥
अर्थ-अहिंसाज परम धर्म है, शेष सर्वव्रत अहिंसाकी रकाके वास्ते है. जैसा वृक्षकी रक्षाके वास्ते वाड होती है.
अर्थात् अहिंसाकी रहाके वास्ते शेष सर्व व्रत है. तथाच, " अहिंसैषा मता मुख्या स्वर्गमोक्षप्रसाधिनी, अस्याः संरक्षणार्थच न्याय्यं सत्यादिपालनं "॥ १ ॥ इस वास्तेही जीवदया संयुक्त सर्व विहार, आहार, तप, वैयावृत्यादि सदनुष्टान सिह है जिनेइ मतमें वीतरागके कथन करे सिशंतमें श्री शय्यंनव सूरि कहते है.
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