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प्रथमचम.
११ नही सृष्टि रचता, किंतु ईश्वरका स्वनावही अनादि कालमें सृष्टि रचनेका है, तो निष्प्रयोजन परजीवांकों दुःख देनेके स्वनाववाला है, वो कवी ईश्वर नही हो सकता है, जैसे कमवे स्वन्नाववाला नींव मीसरी नही हो सकता है. अब जब सृष्टि बनानेका प्रयोजन नही तो सृष्टि ईबरने बनाई है यह क्योंकर सिह होवेगा. जब कोईजी प्रयोजन ईश्वरके सृष्टि बनाने में न मिला तब दयानंदजीने सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ १३ में नही बनाने में क्या प्रयोजन है ऐसा लिखा. बमे शोककी बात है दयानंदजी ऐसे बुध्विान् नाम धरा कर ऐसा प्रश्न पुग, जिसका नत्तर बालकनी दे सकते है; प्रयोजनका अन्नाव यह न बनानेका प्रयोजन है; यह बात सब सामान्य लोकनी जानते है, जिस काम करनेका कुछ प्रयोजन नही नस कामको कोई नही करता. - फेर पृष्ठ २१३ में स्वामीजी लिखता है न बनाना यह आलसी और दरिद लोगोंकी बाते है, पुरुषार्थीकी नही, और जीवांको प्रलयमें क्या सुख वा दुःख है ? जो सृष्ठिके सुखःखकी तुलना की जाय तो सुख केई गुना अधिक होता है, और बहूतसे पवि. त्रात्मा जीव मुक्तिके साधन कर मोक्के आनंदकोनी प्राप्त होते है. प्रलयमें निकम्मे जैसे सुषुतिमें पड़े रहते है वैसे रहते है और प्रलयके पूर्वसृष्ठिमें जीवोंके कीये पाप पुण्य कमोका फल ईश्वर कैसे दे सक्ता और जीव क्योंकर नोग सकते तिसका नत्तर-नला जो काम निकम्मा होवे जिसका प्रयोजन कुट न होवे. करने में अनंत जीवांकों कुःख उत्पन्न होवे, ऐसे काम करनेवालेको नला मानस और न करनेवालेको दरिड़ी कौन बुद्धिमान कह सक्ता है; कोश्नी नही. और जो लिखा सुख केई गुना अधिक होता है बहुत पवित्र जीव मुक्तिके आनंदको प्राप्त होते है, नला! जिन
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