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अज्ञानतिमिरनास्कर धर्मोपदेशक ४ स्थविर ५ बहुश्रुत ६ अनशनादि विचित्र तप कर नेवाला तपस्वी अथवा सामान्य साधु ७ इन सातोंकी वत्सलतां करे अर्थात् इनके साथ अनुराग करे, यथावस्थित गुणकीर्तन करे तथा यथायोग्य पूजा नक्ति करे सो तीर्थकर पद नपार्जन करे इन पूर्वोक्त अहंतादि सात पदका वारंवार झानोपयोग करे तो ७ दर्शन सम्यक्ता ए झानादि विषय विनय १० इन दोनोंमे अतिचार न लगावे, अवश्यमेव करने योग्य सयंम व्यापारमें अतिचार न लगावे, ११ मूलगुण ननरगुणमे अतिचार न लगावे १५ कण सवादिमें संवेग नावना ओर ध्यानकी सेवना करे १३ तप करे ओर साधुओंको नचित दान देवे १५ दश प्रकारकी वैयावृत करे १५ गुरु आदिकोके कार्य करणारा गुरु आदिकोंके चित्तको समाधि नपजावे १६ अपूर्वज्ञान ग्रहण करे १७ श्रुतन्नक्ति प्रवचनमें प्रत्नावना करे १७ श्रुतका बहु मान करके १ए यथाशक्ति मार्गकी देशनादि करके प्रवचनकी प्रनावना करे .
इनमेंसें एक दो नत्कृष्ट पदें वीश पदके सेवनेंसें तीर्थंकर गोत्र बांधे, यह कथन श्रीज्ञाताजी सूत्रमें है.
जो तीर्थकर होता है सो निर्वाण अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो जाता है, फेर संसारमें नही आता है; और चला जायगा जगतवासी जीव जैसे जैसे शुनाशुन कर्म करते है तैसा तैसा शुनाशुन्न फल अपने अपने निमित्तके योगसे नोगते रहते है तिस निमित्तहीकों अझलोक ईश्वर फलदाता कल्पन करते है, और सगुण निर्गुण, एक अनेक, रूपसे कथन करके अनेक ग्रंथ लिख गये है, परंतु निरंजन, ज्योतिस्वरूप, सचिदानंद, वीतराग परमेश्वर किसी युक्ति प्रमाणसेंनी जगतका कर्ता, हर्ता, फलदाता, सिह नहि होता है, यह कथन जैनतत्वादर्शमें अछी तरेसें लिखा है.
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