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द्वितीयखम.
१७५ नी अपनी नापा अपने समझते थे. पी गौतमादि मुनियोंने संस्कृत प्राकृतमें सूत्र गुंथे. पूर्व तो प्राये सर्व संस्कृतमें गुंथे और बालक, स्त्री अल्प बुदि प्रमुखोके वास्ते सूत्र प्राकृतमें गुंथे. तथा यह जो प्राकृत वाणी है तिसके शब्दोमें जैसी सामर्थ्य है तैसी संस्कृतमें नहि है. प्राकृतके शब्द अनेकार्थके बोधक है और विछानोका माननंजन करनेवाला है और बहु गहनार्थ है. जैनमतके शास्त्र निःकेवल प्रातही नहि है किंतु पम् नापामें है. संस्कृत १ प्राकृत र शौरसेनी ३ मागधी ४ पैशाची ५ अपभ्रंश ६ प्राकृत तीन तरेकी है. समसंस्कृत १ तज २ देशी ३. श्न सर्व नापायोका व्याकरण विद्यमान है. संस्कृतके शब्दोसें जो प्राकृत बनती है, तिसको लज्ज कहते है. और जौ अनादि लिइ शब्द है; और जो किसी व्याकरणसेंनी तिइ नही होता है तिसको देशी प्राकृत कहते है. तिस प्राकृतकी देशी नाममाला श्री महावीर पीछे 40 वर्षके लगन्नग पादलिप्त आचार्य हुवा जिनके प्राचार्य श्रावक नागार्जुन तांत्रिक योगिनें अपने गुरु पादलिप्त आचार्यके नामले श्री शत्रुजय तीर्थराजकी तलेटीमें पादलिप्तपुर अर्थात् पालीताणा नगर वसाया तिप्त पादलिप्त आचार्यने देशी नामवाला रची थी. तिनके पीछे विक्रमसंवत १०३ए वर्षे राजा नोजका मुख्य पंमित धनपाल जैनधर्मीनें उसरी देशी नाममाला रची. पीछे श्रीहेमचं आचार्यने सिराज जयसिंहके कहनेंसें तीसरी देशी नामवाला रची जो इस समयमें बुन्दर साहेबे उपावाके प्रसिह करी है. देशी नाममाला कुछ देशी शब्द जो नाषामें बोलने में आता है तिन शब्दोकी है. तथा कच्छ देश अंजार गामके पास एक जैनमतका बहुत प्राचीन जैनमंदिर है जिसको हाल नश्वरजी कहते है तिस पुराने जैनमंदिरमें एक जमा खोदनेसे एक ताम्रपत्र निकला है तिसकी आ
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