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अज्ञानतिमिरनास्कर को दांसीनी नदि आती है क्योंकि हांसी तीन निमित्तोसे नत्पन होती है, आश्चर्य वातके सुननेसें, आश्चर्य वस्तुके देखने से, आश्चर्य वस्तुकी स्मृति होनेसें. अहंत नगवंतके पूर्वोक्त तीनोही आश्चर्य नहि है क्योंकि नगवंत तो सदा सर्वज्ञ है; पदार्थोपर प्रीति करणी सो रति; पदार्थोपर जो अप्रीति करणी सो अर. ति; नय; जुगुप्सा अर्थात् घृणा; शोक, चित्तका वैधूर्यपणा; का. म, मन्मथ; मिथ्यात्वदर्शन मोद; अज्ञान, मूढपणा; निश, सोना; अविरति, अप्रत्याख्यान; राग, सुखानिज्ञ, सुखकी अनिलाषा, पूर्व सुखकी स्मृति. सुखमें और शस्त्रके साधनमें गृपिणा सो राग, द्वेष, उःखानि खानुस्मृति पूर्व उःखमें और दुःखके साधनोमें क्रोध सो क्षेष, ये अगरह दूषण जिसमें न होवे सोही अईत परमेश्वर है. जब अहतका निर्वाण होता है तब शुरू निरंजन, अविकारी अरूपी, सच्चिदानंद, इनस्वरूपी, अलख, अगोचर, अजर, अज, अमर, ईश, शिवशंकर, शुभ, बुझ, सिह, परमात्मादि नामोसे कहा जाता है; परंतु अज्ञानोदयसे मतजंगी ओंने अनादि व्यत्व शक्तिका ईश्वरका गुणोपचार करके ईश्वरको जगतका कर्ता ठहराया है, इसमें सिह परमात्मामें अनेक टूषणो नत्पन्न होते है सो तो मतजंगी नहि विचारते है. परंतु इस जगत ईश्वर विना कदापि नहि हो सकता है इस चिंतामही डूब मरे और मूब जाते है; और जो जो मतजंगीओंने अपने मतमें आदि उपदेशक, देहधारी ईश्वर, शिव, राम, कृष्ण, बह्मा, ईशादि ठहराये है वे अगरही दूषणोस रहित नहि थे, क्यों कि शिवकी बाबत पुराणोमें जो कथन लिखा है तिससे एसा मालुम होता है कि शिवजी कामीनी थे, वेश्या वा परस्त्री गमनन्नी करते थे, और राग द्वेषीनी थे, और क्रोधीनी थे, और अज्ञानीनी श्रे, इत्यादि अनेक दूषण संयुक्त थे, इस वास्ते अस्त
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