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प्रश्रमखम.
१५७ गया लिखा है तो फिर दयानंद काहेको जूग वाद करता है. दयानंदका यह लेख लोगोंका उगने वाला है क्योंकि इस लेखकों देखके कृष्णके मानने वाले लोक जैनीयोंसें विरोध करेंगे, परंतु दयानंदने जैसी कृष्णादि अवतारोंकी निंदा करी है तैसि किसी नेनी नही करी है. क्योंकि जिसने कृष्णादि अवतारोंके रघे पुराण नपपुराण गीता नारत नागवत सर्व १७ स्मृतियां आश्वलायनादि सूत्र ऐतरेय तेत्तरेय शतपय तामय गोपथ वेदाके ब्राह्मणाकों वेदकी उपनिषदाको ऐतरेय आरण्यक तैत्तरेय आरण्यक पूर्वकालीन नाष्य टीका दीपिकाकों इत्यादि सर्व ग्रंथाको मिथ्या ठहराये है, जब ये ग्रंथ मिथ्या है तो इनके बनाने वाले श्रीकृष्णादी मृषावादी अज्ञानी और पापी ग्हरे तथा सर्व देवोंकी मूर्तियोंकी निंदा करी तब सर्व देवोंकी निंदा हो चुकी. इत्यादि इसी सत्यार्थप्रकाशमें देख लेना.
__दयानंदका अमूर्तिवाद. पृष्ट ४१-४२ में दयानंदजीने नीचे उपा हुवा चित्र दीया है.
इसमेंसे पहिला चित्र वेदीकी स्थापनाका है, दूसरा प्रोक्षण पात्रीका है, तीसरा प्रणोतापात्रका है, चौथा भाज्यस्थालीका है ओर पांचवा चमसाका है. अब इसके संबंध मेरा कहनेका आशय यह है कि दयानंदजी अपने शिष्यो समाजने वास्ते ऐसा चित्र दिखलाते है अथात् आकृति ( मूर्ति ) का स्वीकार करता है और बाह्यसें मूर्तिका निषेध करता है यह कैसा न्याय ! नला, यह तुच्छ मात्र आहुतिका पात्र विना स्थापनाके समझाय नही सक्ता है तो जो महात्मा अवतार सत्यशास्त्रके उपदेशक
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