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अज्ञानतिमिरनास्कर. नेमें संदेह होता है, दूसरा निवेदन पत्र पृष्ट ५-६ ॥ अन्य पंडित तथा विलायती पंडित दयानंद सरस्वतीजीके बाबत यह लिखते है. न्यायसे दूसरपरका संनव नही होता है ॥२॥ तृतीय पक्ष. तिसरे पद तो संन्नव होनी सक्ता है परंतु सतपुरुषांको ऐसा लिखना नचित नही ॥ ३ ॥
चतुर्थ पक्ष. . चौथा पद प्रतीत करनेके योग्य नही क्या जाने सच्चकी जगें जूठही हाथ लगा होवे ॥४॥ पंचम पक्ष. पांचमा पक्ष अप्रमाणिक और न्याय बुहिसे हीन तो कदाचित् मानन्नी लेवें परंतु प्रेक्षवान् कदापि नही मानेगं ।। ५ ॥ हिंदुस्थानमें बहुतोंने अपने मतके पंथ चलानेसें आर्य लोकोंकी बुद्धि कुंठ होगइ है. मिथ्यात्व घोर अंधकार सागरमें संशय नरे हुवे अब रहे है. कितनेकतो क्रिश्चियन हो गये है और कितनेक मुसलमान बन गये है और कितनेक स्वकपोलकल्पित ब्रह्म समाजादि पंथ निकाल बैठे है और कितनेक किसी मतान्नी नहीं मानते है और-कितनेक दयानंद सरस्वतीजीके मतमें दाखिल हो गये है. और साधु फकीरतो हल गेम गेडके, इतने जाटादि हो गये है, गृहस्प लोगोंको सीख देनी मुशकल होगइ है, बहुत साधु फकीर लोग लोनी है, पन रखते है, रांडत्नी रखते है, लोगोंसें लमते है, गांजे चरसकी चिलमें नमाते है, नांग अफीम धतुरा खाते है और लोगोंसें गाल देते हे तथा कितनेक नगरोंमें मेरे धांध बैठे है, लोगोंको लुंटते लुच्चेपणे करते हैं, परस्त्रीयों गमन करतेहै, मांस मदिरानी कितनेक खाते पीते है. इस फिकीरोसे तो गृहस्थ
हो और न्यायसें पैला पैदा करके अपने बाल बच्चोंकों पालें, दीन उखान चासँको देवतो अचाकाम है. साधु नुसीकों होना चाहिये जो तन मात्र वस्त्र और नूख मात्र अन्न लेवे, शील पाले
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