________________
११०
अज्ञानतिमिरनास्कर. ननके जो प्राण है वे ( सुमेधसः) ननकी बुड़िकों अत्यंत बढानेवाले होते है और उस मोद प्राप्त मनुष्यकों पूर्व मुक्तलोग अपने समीप आनंदसें रख लेते है और फिर वे परस्पर अपने समीप आनंदसें रख लेते है और फिर परस्पर वे अपने ज्ञानसे एक दूसरकों प्रीतिपूर्वक देखतें और मिलते है, ( सनोबंधु० ) सब मनुप्योंकों यह जानना चाहिये की वही परमेश्वर हमारा बंधु अथात् उखका नाश करनेवाला है तथा वही सब काका पूर्ण कर्ता और सब लोकोंके जाननेवाला है कि जिसमें देव अर्थात् विहान् लोग मोक्षको प्राप्त होके सदा आनंदमें रहते है और वे तीसरे धाम अर्थात् शुक्ष्सत्वसें सहित होके सर्वोत्तम सुखमें सदा स्वच्छंदतासे रमण करते है ॥३॥इस प्रकार संवेपस मुक्तिका विषय कुछ तो वर्णन कर दिया और कुछ आगेनी कहीं कहीं करेगे सो जान लेना, जैसे (वेदाहमेत ) इस मंत्रमेंनी मुक्तिका वि षय कहा गया है ॥ इति मुक्तिविषयः संदेपतः ॥ यह दयानंद सरस्वतीकी मानी दुश् मुक्ति है.
अब हम इस पूर्वोक्त मुक्तिकों विचारतें है, प्रथम वेदांतकी
- मुक्तिमें झगमा पड रहा है. व्यासजीके पिता बाका विचार, दरीजीतो मुक्तिका स्वरूप कितनी वस्तुयोंके अन्ना
व होनेसे मानते है, और जैमिनीव्यासका मुख्य शिष्य बादरीजीसे विपरीत मुक्ति स्वरूप मानते है, और व्यासजी इन दोनोंहीसें निन्न तीसरी तरेमी मुक्ति मानते है. इससे यह ति होता है कि वेदोंमें मुक्ति स्वरूप अच्छी तरेंसें नही कथन करा है जे कर करा होता तो इन पूर्वोक्त तीनों आचार्योंका अ. लग अलग मुक्ति विषयमें मत न होता, जे कर कहोगे वेदोहीमें मुक्ति तिन तरेकी कही है, तब तो वेद एक ईश्वरके बनाये हुये नदी है, किंतु तीन जणोंके बनाए हुये है. जैसी जैसी तिसकी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org